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________________ वैष्णवतन्त्रों के सन्दर्भ में समता के स्वर २७७ इस आक्षेप का बोध है, ऐसा प्रतीत होता है। इसी कारण यह शास्त्र स्वयं अपने को श्रुतिमूलक सिद्ध करते हुए वेद की एकायन शाखा को अपना आधार बतलाता है।' इसके अतिरिक्त यत्र-तत्र वैदिक आचार की मर्यादा को स्वीकार करने, उसकी रक्षा करने की बात भी कही गयी है मनीषी वैदिकाचारं मनसाऽपि न लङ्घयेत् । यथा हि बल्लभो राज्ञो नदी राज्ञा प्रवर्तिताम् ॥२ तथा---- एवं विलङ्घयन् मयों मर्यादा वेदनिर्मिताम्। प्रियोऽपि न प्रियोऽसौ मे मदाज्ञाव्यनिवर्तनात् ॥3 इस प्रकार पाञ्चरात्र आगम अपने ऊपर वेदविरोधी होने के आरोप का निराकरण करत हुए प्रतीत होते हैं। पाञ्चरात्र आगामो पर दूसरा आरोप यह लगाया गया कि यह शास्त्र वेदबाह्य जनों के द्वारा परिगृहीत है। इस कारण पाञ्चरात्र आगम अप्रामाणिक हैं। यामुनाचार्य ने इसका बड़ा ही सुन्दर उत्तर दिया है कि पाश्चरात्रिक वेदबाह्य हैं और वैदिक पाञ्चरात्रबाह्य । यदि वेदबाह्य जनों से परिगृहीत होने से पाञ्चरात्र अप्रमाण है तो पाञ्चरात्रबाह्य जनों से परिगृहीत होने से वेद अप्रमाण क्यों नहीं है ___वेदबाह्यगृहीतत्वादप्रामाण्यवादि यत् । एतद्वाह्यगृहीतत्वाद् वेदानां कुतो न तत् ॥ तात्पर्य यह है कि यदि पाञ्चरात्र आगम वेदविद्या में अनधिकृत लोगों को अपने में अधिकार देते हैं तो इसमें अप्रामाणिकता का कौन सा कारण है। वेद से विरोध तो वहाँ होता जहाँ पाञ्चरात्र वेद में उन्हें अधिकार प्रदान करता, जिन्हें वेद में अनधिकृत कहा गया है। ___ भट्टोजिदीक्षित ने अपने 'तन्त्राधिकारिनिर्णयः' नामक ग्रन्थ में पाञ्चरात्र आगमों में अधिकारी का निर्णय बड़े शक्तिशाली ढंग से किया है। उनका निष्कर्ष है श्रुतिभ्रष्ट तथा पतित आदि ही पाञ्चरात्र आगमों में अधिकृत हैं--- तस्मात् पतितादय एव शङ्खचक्राद्यनादावधिकारिण इति सिद्धम् ।" . पद्मपुराण का वचन इस प्रकार उदाहृत मिलता है श्रृणु राम ! महाबाहो लिङ्गचक्रादिधारिणाम् । शूद्रधर्मरतानां हि तेषां नास्ति पुनर्भवः ॥ १. ईश्वरसंहिता। २. लक्ष्मीतन्त्र, १७।९६ । ३. वही, १७१९८ । ४. आगमप्रामाण्यम् पृ० ६२। ५. तन्त्राधिकारि निर्णयः ।। परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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