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________________ वैष्णवतन्त्रों के सन्दर्भ में समता के स्वर २७५ समता का भी नहीं है । समता का प्रश्न तो वहीं उठेगा, जहाँ समता न हो । इन वर्णों में जब से एक को उत्कृष्ट कहा जाने लगा और दूसरे को नीच, एक को वन्द्य कहा जाने लगा और दूसरे को निन्द्य, तभी से भारतीय समाज में विषमता का बीजवपन हुआ, और तभी से समता का प्रश्न भी सार्थक हो गया । प्रायः सभी उपलब्ध शास्त्र अपने ढंग से वर्णों की उच्चता अथवा नीचता की चर्चा करते हुए दिखायी देते हैं । अतः सामाजिक विषमता शास्त्रों में कोई ढूंढ़ने की वस्तु नहीं है । आश्चर्य की बात यह है कि कालक्रम से विविध प्रकार की कुरीतियों से ग्रस्त होती हुई यह व्यवस्था, व्यवस्था नहीं रह गयी, यह व्यवस्था वर्णों की अव्यवस्था हो गयी और किसी भारतीय मनीषी ने इस स्थिति के विरुद्ध अपनी बैखरी का प्रयोग नहीं किया । पारमार्थिक आध्यात्मिक स्तर पर अद्वय सत्ता की स्थापना करने वाले, पूर्ण अभेद की स्थापना करने वाले आचार्य शङ्कर व्यावहारिक स्तर पर, सामाजिक स्तर पर भेददृष्टि का पूर्ण समर्थन करते हैं । शारीरकभाष्य का 'अपशूद्राधिकरण '' इसका एक उदाहरण है । ۱۹ शूद्रो यज्ञेऽनवक्तृप्तः । 3 अथ हास्य वेदमुपश्रृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रं प्रतिपूरणीयम् । 3 य ह वा एक्छ्मशानं यच्छूद्रस्तस्माच्छूद्रसमीपे नाध्येतव्यम् ॥ ४ वेदोच्चारणे जिह्वाच्छेद उच्चारणे शरीरभेदः । ५ न शूद्राय मतिं दद्यात् । ये वे शास्त्रवचन हैं जिनको शङ्कराचार्य ने अपने भाष्य में प्रमाण के रूप में प्रयोग किया है । आचार्य रामानुज ने उक्त अधिकरण में शङ्कराचार्य द्वारा प्रदर्शित व्याख्यानपद्धति का अवलम्बन लिया है। कम से कम एक वैष्णव आचार्य से इस प्रकार की आशा नहीं करनी चाहिए कि पाञ्चरात्रसाहित्य तथा आलवार भक्तों की दृष्टि से सम्पन्न होते हुए भी वह इस प्रकार के मतों की पुष्टि करेंगे । वस्तुतः रामानुज वेद, उपनिषद्, इतिहास, पुराण, धर्मशास्त्र, पाञ्चरात्र, तमिलवेद इन सबको साथ लेकर चलना चाहते हैं । परस्पर विरूद्ध अर्थ का प्रतिपादन करने वाले इस सम्पूर्ण साहित्य की उन्होंने इस प्रकार से व्याख्या की है कि इनमें किसी प्रकार का विरोध न रह जाय । इस समन्वय के लिए उन्होंने वैदिक क्रियाकलापों में अधिकारी का निर्णय १. शारीरिक सूत्र, १.३.९ । ५. गो० २.३.४ । Jain Education International २. सं० ७.१.१.३ ॥ ३. गो० २.३.४ । ६. मनु० ४.८० । ७. श्रीभाष्य १.३.९ । For Private & Personal Use Only ४. वही । परिसंवाद - २ www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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