SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६८ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ ही चेतना के क्रमिक विकास हैं और इनमें से प्रत्येक पक्ष की विभिन्न अवस्थाओं में केवल स्तर-भेद है, गुणात्मक भेद नहीं। प्रत्यभिज्ञाहृदय में 'तद्भुमिकाः सर्वदर्शनस्थितयः' (सूत्र ८) कहकर क्षेमराज ने इसी बात की अभिव्यक्ति दी है। क्षेमराज की इस सूक्ष्म वाणी का पल्लवन लल्ला की इस उक्ति में और विशद रूप से हुआ है शिवो वा केशवो वापि जिनो वा द्रुहिणोऽपि वा। संसाररोगेणाक्रान्तामबलां मा चिकित्सतु ॥८॥ जो इस रहस्य को नहीं समझ पाते उनके प्रति अभिनवगुप्त की कटुता दर्शनीय है-'परमात्मनः सर्वगतं रूपं यो न पश्यति, तस्य परमात्मा पलायितः, स्वरूपप्रकटीकाराभावात् ।' (गीता ६.३१ पर गीतार्थसंग्रह) सच पूछिए तो साम्य की यह तात्त्विक स्वरूप को उद्वोधता ही सामाजिक साम्य के बीज बोती है । तन्त्रों का स्पष्ट उद्घोष है कि समता का अर्थ विषमतां का अभाव नहीं है बल्कि उस वैषम्य को एक व्यवस्था के अन्तर्गत एक समंजस और परस्परानुजीवी स्थान प्रदान करता है ताकि आपातिक भेद, मौलिक अभेद का सम्पन्नतर प्रतीक बन सके । और समता का यह अर्थ भी नहीं है कि वस्तु के विशेष स्वरूप की अवधारणा या उसके स्वरूपगत वैशिष्टयों का अपलाप कर दिया जाए। समता का अर्थ है पदार्थ के अस्तित्व को दो चरणों में समझना-एक तो उसके विशिष्ट प्रकृति के सन्दर्भ में और फिर उस प्रकृति को एक ज्यादा मौलिक और सार्थक तत्त्व की सहज परिणति के रूप में। गीता के ५.१९ (विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ।।) की व्याख्या में अभिनवगुप्त बड़ी ही मार्मिक बात कहते हैं 'तथा च तेषां योगिनां ब्राह्मणे नेदशी बुद्धिः-अस्य शुश्रूषादिनाहं पुण्यवान्भविष्यामि-इत्यादि । गवि न पावनीयमित्यादि । हस्तिनि नार्थादिधीः । शुनि नापवित्रापकारितादिनिश्चयः । श्वपाके च न पापापवित्रादिधिषणा। अत एव समं पश्यन्ति इति., न तु व्यवहरन्ति ।' तंत्रों में इस समग्रतावादी दृष्टि को प्रत्येक स्तर पर अनेक प्रकार से उपपन्न करने का प्रयास हुआ है । मनुय्य की चेतना के उदात्तीकरण सर्वो ममायं विभवः इत्येवं परिजानतः । (ई० प्र० का० ४.३.१२) फलतः सार्वभौमीकरण, चैतन्य के निमित्त और उपादान रूपों के अभेदीकरण'; परमतत्त्व से विषयजगत् के आवयविक निकास १.: चिदात्मैव हि देवोऽन्तःस्थमिच्छावशाद्वहिः । - योगीव निरुपादानमर्थजातं प्रकाशयेत् ॥ (ई० प्र० का० १.५.७) परिसंभाव-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy