SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६६ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ मोक्ष यहाँ जीवन के आनन्द का पुंजीभूतरूप बनकर आया। पर जहाँ इस आन्दोलन ने सामाजिकता और लोकानुकूलन के क्षेत्र में अनेक सम्भावनाएँ दी, वहाँ आत्मसंकुलन प्रवृत्ति ने इसे केन्द्राभिसारी और आत्मपरितुष्ट ही बने रहने दिया । पर इन सारी धाराओं और प्रयासों की एक मौलिक कठिनाई यह रही कि इनमें से कोई भी धारा एक स्थानापन्न लोक व्यवस्था नहीं दे सकी । अर्थात् जीवन-निषेध का यह विरोध एक ऐसे चक्र के रूप में आया, जिसमें केन्द्र और परिधि तो नहीं थी पर बीच में कुछ आन्तरिक सत्त्व (content) नया नहीं था । अर्थात् समाज के उसी मूलभूत ढाँचे के अङ्गीकरण का अर्थ हुआ कि व्यवस्थागत विकृतियाँ और असामाजिकता की ऐतिहासिक प्रकृति में मौलिक की जगह आपातिक परिवर्तन ही हो पाए । अतः सामाजिक समता के क्षेत्र में प्रगति तो इई पर आमूलचूल परिवर्तन नहीं हुआ । इससे यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए कि इन सारे प्रयोगों का कोई परिणाम नहीं हुआ । इनका भारतीय समाजरूप अवयवी में गहरा प्रभाव पड़ा और पुंजीभूत और समग्र परिणाम यह हुआ कि वर्णाश्रम व्यवस्था के विखण्डन की पृष्ठभूमि तैयार हो गयी । इस लम्बी भूमिका का एक प्रयोजन है । हम तन्त्र साहित्य पर इसी दृष्टि से विचार करेंगे और देखेंगे कि समता की सामाजिक व्यंजनाएँ हमें कहाँ तक ले जाती हैं। और यदि वे व्यंजनाएँ सीमित भी हों तो उनकी सम्भावनाएँ क्या हमें एक नए मानववादी, समतावादी भविष्य की ओर ले जाती हैं । जहाँ तक सामाजिक समता की शब्दावली का प्रश्न है तन्त्र साहित्य भी इस बात का अपवाद नहीं है कि सामाजिक समता का कोई लोकव्यवस्थात्मक ठोस स्वरूप उभरता हो । पर तान्त्रिक और वैदिक परम्परा में कोई मौलिक अन्तर अवश्य था और इस अन्तर की चेतना निगम परम्परा के स्मृतिकारों और आगम परम्परा के आचार्यों को भी रही है । मनुस्मृति के प्रसिद्ध टीकाकार कुल्लूक भट्ट दो प्रकार की श्रुतियों की चर्चा करते हैं - वैदिक और तान्त्रिक ।' इसी प्रकार श्रीकण्ठ अपने ब्रह्मसूत्र-भाष्य में शैवागमों के दो विभागों का उल्लेख करते हैं - वेद जिनका साक्षात् सम्बन्ध तीन वर्णों से है और दूसरे जिनका सभी वर्गों से है । “अतः शैवागमो द्विविधः त्रैर्वाणकविषयस्सर्वविषयश्चेति । वेद: त्रैवणिकविषयः । सर्वविषयकश्चान्यः । उभयोरेक एक शिवः कर्ता ।" तन्त्रालोक के विश्रुत टीकाकार जयरथ भी दो प्रकार के शास्त्रों में अन्तर बताते हैं "तत्र भेदप्रधानानि वेदादीनि शस्त्राणि, अभेदप्रधानानि च शैवादीनि ।” ( तंत्रालोक ४.२५२ पर विवेकटीका) २. ब्रह्मसूत्र २. २.३७ पर श्रीकण्ठभाष्य । १. द्विविधा च श्रुतिः वैदिकी तान्त्रिकी च । परिसंवाद - २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy