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________________ काश्मीर के अद्वैत शैवतन्त्रों में सामाजिक समता डॉ० नवजीवन रस्तोगी एक बात हमें ईमानदारी से स्वीकार करनी होगी कि सामाजिक समता के सिद्धान्त का पल्लवन भारतीय दर्शन में उस रूप में नहीं हुआ है जिस रूप में पाश्चात्यदर्शन या आज का विवेच्य विषय हमसे अपेक्षा करता है। शायद इसका कारण यह है कि दर्शन किसी भी समाज के व्यापकतर सांस्कृतिक व्यापार का अङ्ग है उसका पर्याय नहीं, और इस रूप में वह उस संस्कृति के अवचेतन में छिपे चरम मूल्य को ही प्रतिबिम्बित करता आया है। मोक्ष की धारणा, उसके स्वरूप को लेकर हम चाहे जितना झगड़ते क्यों न आए हों, भारतीय दर्शन की धुरी रही है और यह साधनात्मक स्तर पर एक नितान्त वैयक्तिक, समाजोत्तीर्ण 'अत्याश्रमी' प्रक्रिया रही है । धर्मशास्त्रों में चर्चित तीन पुरुषार्थों का केन्द्र जहाँ समाज रहा है वहाँ मोक्ष समाज से हटकर व्यक्ति पर केन्द्रित हो गया है, भले ही वह मुक्त व्यक्तित्व कितना व्यापक और सर्वाङ्गीण माना जाए। ऐसा लगता है कि सामाजिक समता के लिए यदि हम धर्मशास्त्रों से नितान्त व्यक्तिरिक्त रूप में दर्शन को लें तो समता की समस्या का सन्दर्भ ही नहीं बनता है। अध्ययन की वस्तुनिष्ठ पद्धति का आश्रय लेने पर हम पाते हैं कि समता की बात जहाँ आयी है वहाँ वह अनुषंगिक बनकर आयी है और वहाँ भी तात्त्विक या दार्शनिक आयाम ही अधिक उभरे हैं सामाजिक नहीं। कहे हुए सन्दर्भ में विचार करना दुस्तर भी है और शायद असार्थक भी। अतः सन्दर्भ की पूर्णता के लिए आवश्यक है कि समस्या को उसके सम्पूर्ण सांस्कृतिक सन्दर्भ में उठाया जाए। इसके लिए आवश्यक होगा कि दर्शन को हम उसकी सांस्कृतिक या ऐतिहासिक गतिशास्त्र की दृष्टि से देखें। सामाजिक समता का प्रश्न सामाजिक व्यवस्था और उससे भी अधिक हमारे सांस्कृतिक अवचेतन से जुड़ा हुआ है। सामाजिक व्यवस्था और सांस्कृतिक अवचेतन की पारस्परिकता में सहजता की मात्रा से सामाजिक समता की गति निर्धारित होती है। विश्व का इतिहास इस बात के लिए संस्कृति-पुरुष मनु का ऋणी रहेगा कि उन्होंने भारतीय समाज को एक यथाशक्य सम्पूर्ण व्यवस्था दी, जिसमें समाज, और व्यक्ति तथा उसके सम्बन्ध को निर्धारित करने वाले मूल्यों का इस प्रकार सामंजस्य किया गया जिससे कि भारतीय समाज में ऐतिहासिक कालानुरोध से आने वाली परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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