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________________ भारतीय धर्म-दर्शन का स्वर सामाजिक समता अथवा विषमता? २५९ बालोऽपि नावमन्तव्यो मनुष्य इति भूमिपः। महती देवता ह्येषा नररूपेण तिष्ठति ॥' ऐसी विचारधारा का सामाजिक समता के सिद्धान्त से सर्वथा बेमेल है। श्रमिक-वर्ग की दशा तथापि शुद्र के साथ भेद-भाव की परम्परा उतनी शास्त्रकारों की सामाजिकआर्थिक शोषण की प्रवृत्ति से प्रेरित नहीं प्रतीत होती जितनी एक विशिष्ट जीवन-दृष्टि की आन्तरिक अपेक्षाओं से। हमारे शास्त्रकार ब्राह्मण रहे हैं, और उन्होंने ब्राह्मणों का जो जीवन-स्तर निर्धारित किया है वह भारतीय इतिहास के अधकचरे मार्क्सवादी व्याख्याताओं को चक्कर में डाल देने वाला तथ्य है। यूरोप में श्रमिकों का शोषण करने वाला वर्ग उत्पादन के साधनों-भूमि, पूँजी आदि-पर एकाधिकार जमा लेने ' वाला वर्ग रहा है, जो समाज का सारा सुख बटोर लेने की महत्त्वाकांक्षा से प्रेरित था। यहाँ, समाज में शूद्रों का स्थान नीचा निर्धारित करने वाला वर्ग ब्राह्मण रहा है । प्राचीन काल में, मुट्ठी भर दरबारी ब्राह्मणों को छोड़कर प्रायः सम्पूर्ण ब्राह्मणजाति एक अकिञ्चन, भिक्षुक जाति के रूप में उभरी थी। उसने अपना जीवन-स्तर स्वेच्छया इतना नीचा रखा कि उनपर पर-शोषण का आरोप हास्यास्पद हो जाता है। द्रोण जैसे ब्राह्मण राज्याश्रय प्राप्त करने के पूर्व अपने पुत्र अश्वत्थामा के लिए गाय का दूध नहीं जुटा पाते थे और पुत्र को आटे का घोल दूध समझ कर पीते देख आँसू बहाया करते थे। ब्राह्मण के परिग्रह की सीमा बाँधते हुए मनु कहते हैं ऋतामृताभ्यां जीवेत् तु, मृतेन, प्रमृतेन वा। सत्यानृताभ्यामपि वा; न श्ववृत्त्या कदाचन ॥ ऋतमुञ्छशिलं ज्ञेयममृतं स्यादयाचितम् । मृतं तु याचितं भैक्षं, प्रमृतं कर्षणं स्मृतम् ॥ सत्यानृतं तु वाणिज्यं तेन चैवापि जीव्यते। अर्थात् ब्राह्मण को ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत और सत्यानृत से जीवन-निर्वाह करना चाहिए । ऋत उच्छशिल को कहते हैं, अमृत अयाचित भिक्षा को, मृत याचित भिक्षा को, प्रमृत खेती को और सत्यान्त वाणिज्य को। इतना ही नहीं २. म० भा०, आदि० १३०।५४-५८ । १. तत्रैव ७।४,५,७,८। ३. मनु० ४।४-६ । परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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