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________________ २५६ .. भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ ये हि ब्रह्ममुखादिभ्यो वर्णाश् चत्वार उद्गताः। ते सम्यगधिकुर्वन्ति त्रय्यादीनां चतुष्टयम् ॥' माध्यन्दिन-वाजसनेयि-संहिता घोषणा करती है कि वेदवाणी शूद्र और चारण के लिए भी सुलभ है-'यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः। ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय, चाय च, स्वाय चारणाय च ।२ खेद और आश्चर्य का विषय है कि इस वेदानुमोदित स्वस्थ परम्परा की सर्वथा उपेक्षा करके शबर, कुमारिल, शङ्कर, रामानुज प्रभृति आचार्यों ने शूद्र के लिए श्रुतिश्रवणाध्ययन-वर्जन की नितान्त वैषम्यमूलक परम्परा को ही मान्यता दी है। इससे भी आश्चर्यकारी तथ्य यह है कि जिस वेद का द्वार शूद्र के लिए बन्द कर दिया गया, उसके निर्माण में शूद्रों का भी हाथ है । कहते हैं कि इलूषा के पुत्र कवष को ऋषियों ने सरस्वती के तट पर अनुष्ठित सोम-यज्ञ से यह कह कर निकाल दिया कि 'यह दासी-पुत्र, जुआड़ी, अब्राह्मण हमारे मध्य में दीक्षा कैसे प्राप्त करेगा ?' उसे मरु-भूमि में भगा दिया गया कि वह प्यासा मर जाय और सरस्वती का जल न पी पाये। जब वह प्यास से व्याकुल हो गया तब उसे ऋग्वेद के दशम मण्डल के अपोनप्त्रीय । अपां नपात् । आपः सूक्त के दर्शन हुए, अर्थात् उस पर उक्त वेद-सूक्त प्रकट हुआ। वह सूक्त वेद में कवष ऐलूष के नाम से अब तक चला आ रहा है। यह कथा ऐतरेय-ब्राह्मण की है, जिसके शब्द ये हैं-'ऋषयो वै सरस्वत्यां सत्रमासत । ते कबषमैलूषं सोमादनयन्-"दास्याः पुत्रः, कितवो, ब्राह्मणः, कथं नो मध्ये दीक्षिष्टेति ?" तं बहिर धन्वोदवहन्–अत्रैनं पिपासा हन्तु, सरस्वत्या उदकं मा पातुइति । स बहिर् धन्वोदूढः पिपासया वित्त एतद्रपोनप्त्रीयमपश्यत् । इसी प्रकार इतरा दासी के पुत्र महिदास ऐतरेय पर ऐतरेय-ब्राह्मण का प्रादुर्भाव हुआ था। शास्त्रों में स्त्री-समाज __स्त्री को भी पुराण आदि में वेद में अधिकार नहीं माना गया है। श्रीमद्भागवत का वचन है स्त्री-शूद्र-द्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा। इति भारतमाख्यानं कृपया मुनिना कृतम् ॥५ १. अहिर्बुध्न्य-संहिता १५.२०-२१ । २. यजु० २६.२ । ३. ऐतरेय-ब्राह्मण २.३.१ । ४. ऐतरेयाण्यक भाष्य २.१.८; ऐतरेयालोचन, पृ० ११-१५ । ५. श्रीमद्भागवत १।४।२५ । परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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