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________________ भारतीय धर्म-दर्शन का स्वर सामाजिक समता अथवा विषमता ? २५१ ऐतरेय ब्राह्मण में शूद्र 'कामोत्थाप्य' (जब चाहे निकाल दो) और 'यथाकामवध्य' ( जब चाहे पीटो, मार डालो) है । वहाँ वैश्य को भी नही बख्शा गया है । वैश्य 'अन्यस्य बलिकृत' ( अन्य को कर देने वाला), 'अन्यस्याद्य' ( अन्य द्वारा भोगा जाने वाला) 'यथाकामज्येय' (जब और जैसे चाहो लूटा जाने और शोषित किया जाने वाला) घोषित किया गया है । के आपस्तम्ब धर्मसूत्र में शूद्र सम्बन्ध में एक अत्यन्त उदार विधान प्राप्त होता है जो अन्यत्र भी अनूदित हुआ है । वह विधान यह है कि जो प्रतिदिन भोजन पाने वाले दास-कर्मकर अथवा शूद्र हैं उन्हें खिला कर खाना चाहिए, चाहे तदर्थं अपने को, भार्या को, अथवा पुत्र को भूखा रह जाना पड़े -- 'ये नित्या भाक्तिकास् तेषामनुपरोधेन संविभागो विहितः । काममात्मानं भार्यां पुत्रं वोपरुन्ध्यान्, न त्वेव दासकर्मकरम् ॥ मनु का वचन है- भुक्तत्स्वथ विप्रेषु, स्वेषु भृत्येषु चैव हि । भुञ्जीयातां ततः पश्चादवशिष्टं तु दम्पती ॥ देवान्, ऋषीन्, मनुष्यांश् च, पितॄन्, गृह्याश् च देवताः । पूजयित्वा ततः पश्चाद् गृहस्थः शेषभुग् भवेत् ॥ यहाँ भी नौकर-चाकर सहित सबको खिला कर ही खाने का आदेश है । दूसरी ओर शास्त्रों ने धर्ममूल-भूत ब्राह्मण और धर्माग्रभूत क्षत्रिय को वैश्य और शूद्र के शोषण की खुली छूट दे रखी है । मनु ने लिखा है कि यदि यज्ञ में धन कम पड़ जाय तो वैश्य अथवा शूद्र के घर से बलपूर्वक अथवा चोरी करके यथेष्ट धन प्राप्त किया जाना चाहिए यज्ञश् चेत् प्रतिरुद्धः स्यादेकेनाङ्गेन यज्वनः । ब्राह्मणस्य विशेषेण धार्मिके सति राजनि ॥ यो वैश्यः स्याद् बहुपशुर्, हीनक्रतुरसोमपः । कुटुम्बात् तस्य तद् द्रव्यमाहरेद् यज्ञसिद्धये ॥ आहरेत् त्रीणि वा द्वे वा कामं शूद्रस्य वेश्मनः । न हि शूद्रस्य यज्ञेषु कश्चिदस्ति परिग्रहः ॥ कुल्लूकभट्ट इन श्लोकों की टीका में कहता है कि वैश्य अथवा शूद्र के घर से द्रव्य बलात् अथवा चोरी से हरण कर लेना चाहिए ( बलेन चौर्येण वाऽऽहरेत्), क्योंकि Jain Education International १. ऐतरेय ब्राह्मण ७।५।२९ । २. ऐतरेय ब्राह्मण ७ - ५.२९ । ४. मनु० ३।११६-११७ । ३. आपस्तम्ब धर्मसूत्र २।४।९।१०-११ । ५. 'धर्मस्य ब्राह्मणो मूलमग्रं राजन्य उच्यते ।' मनु० १११८३ । ६. मनु० ११।११-१३ । परिसंवाद - २ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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