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________________ भारतीय धर्म-दर्शन का स्वर सामाजिक समता अथवा विषमता ? विरुद्धधर्माश्रयत्व भारतीय प्रतिभा की विशेषता है उसका विरुद्धधर्माश्रयत्व | इसे हृदयङ्गम किये बिना प्रस्तुत प्रकरण को प्रकृत परिप्रेक्ष्य में प्रतिपादित करना सम्भव नहीं प्रतीत होता । मुफ्ती सद्रुद्दीन आजुर्दः ने उर्दू के महान् कवि मीर तक़ी मीर के विषय में कहा था, पस्त-श ब-ग़ायत पस्त व बलन्द-श ब-ग़ायत बलन्द, अर्थात् मीर का निकृष्ट निकटतम है और उत्कृष्ट उत्कृष्टतम है । मैं समझता हूँ कि कुछ ऐसी ही उक्ति भारतीय धर्म-दर्शन के विषय में भी चरितार्थ होती है । मौलाना अबुल कलाम आजाद ने अपने तर्जुमानुल - कुअन - शीर्षक कुअनभाय में एक पते की बात कही है- 'यहाँ फ़िक्र ( = चिन्तन) व अक़ीदः (= सिद्धान्त ) को कोई बलन्दी ( = उच्चता) भी वह म ( = अन्धविश्वास) व जिहालत (= मूढता) की गिरावट से अपने-आप को महफूज़ ( = सुरक्षित) न रख सकी, और इल्म ( = विद्या) व अक्ल ( = बुद्धि) और वहम व जिहल ( = मूढता) में हमेशा समझौते का सिलसिला जारी रहा। इन समझौतों ने हिन्दुस्तानी दिभाग की शक्ल व सूरत बिगाड़ दी | उसकी फ़िक्री तरक्क्रियों का तमाम हुस्न ( = सौन्दर्य) अस्नामी ( प्रतिमोपासनासम्बन्धी) अक़ीदों के गर्द व गुबार में छुप गया ।" महमूद ग़ज़नवी का सभ्य अप्रतिम भारतविद् अबू रोहान अल्- बैरूनी लिखता है कि हिन्दू प्रतिभा ऊँचे से ऊँचे सिद्धान्तोंआदर्शों और घटिया से घटिया मूढग्राहों की ऐसी खिचड़ी पकाती है कि ज्ञान और अज्ञान में कोई भेद ही नहीं रह जाता, मानो किसी शिशु के सामने हीरे-मोती तथा कंकड़-पत्थर पड़े हैं और वह उन्हें गड्डमड्ड कर दे रहा है । अल्-बैरूनी के अनुसार इस देश में सुकरात के समान कोई नीर-क्षीर विवेकी सुधारक नहीं उत्पन्न हुआ जो संस्कृति का संस्कार कर सके । फलतः यहाँ बड़े से बड़ा धर्माचार्य भी लोक में व्याप्त कुरीतियों और मूढग्राहों पर कभी प्रहार नहीं करता ( राजा राममोहन राय, दयानन्द, प्रभृति आधुनिकों की बात जाने दीजिए) । यहाँ जो उचित अथवा अनुचित प्रथा एक बार चल पड़ी, वह स्थायी हो गयी । मेरी एक स्वोपज्ञ कारिका है 1 सुरीतयः-कुरीतयः, सुदृष्टयः- कुदृष्टयो, भवन्ति तस्य चेत् सकृद्, भवन्ति शश्वदस्य वै । विभागत तथा पुनर् द्वयोश् च सत्त्व - सत्ययोः परापर-प्रभेदतो द्विधाऽस्य Jain Education International १. अबुल कलाम आजाद, तर्जुमानुल-कुअन, खण्ड १, पृ० १६८ - १७० । २. हर्षनारायण, हिन्दुत्व - सर्वस्वम् ( अप्रकाशित ) | व्यक्तिताऽजनि ॥ For Private & Personal Use Only २४३ परिसंवाद - २ www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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