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________________ प्राचीन संस्कृत-साहित्य में मानव समता स्वायत्त ग्राम-संस्थाएँ महाभारत तथा मनुस्मृति-ये दोनों ही ग्रन्थ-स्वायत्त-ग्राम-संस्थाओं के विषय में अक्षरशः एकमत हैं। इनके अनुसार ग्राम में अपना शासन चलता रहता था । ग्राम का शासक 'ग्रामिक' या 'ग्रामाधिपति' कहलाता था । केन्द्र में चाहे जो भी शासन या शासक हो, उससे ग्राम-शासन पर कोई विशेष प्रभाव न पड़ता था। ग्राम का स्थानीय शासन स्वतः संचालित होता था। ग्रामिक का कार्य द्विविध था । एक ओर तो वह गाँव के समग्र विषयों को देखता तथा सुलझाता था और दूसरी ओर गाँव के लोगों से राजा के लिए कर भी ग्रहण करता था। कर, आक्रमण तथा रक्षा आदि बातों के अतिरिक्त केन्द्रीय शासन किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करता था, वह केवल एक सामान्य नियन्त्रण भर रखता था। गाँव अपने आप में एक अति छोटे राज्य के रूप में कार्य करता था । केन्द्र ने अपने कतिपय अधिकार इन इकाइयों को सौंप दिये थे । ग्राम-संस्था राष्ट्र की न्यूनतम इकाई थी। इसके ऊपर फिर दश गाँवों की इकाई बनती थी। दश गाँवों के रक्षक को 'ग्रामदशेश' कहा जाता था। इसके ऊपर बीस गाँवों की, सौ गाँवों की तथा सहस्र गाँवों की इकाइयाँ होती थीं। उपर्युक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि राज्य-संगठन में साधारण व्यक्तियों का भी योगदान रहा करता था। धर्म-निरपेक्षता 'स्वस्वकर्मण्यभिरतः सिद्धि विन्दति मानवः' अपने-अपने कर्म में रत रहता हुआ प्रत्येक प्राणी सफलता सहचरी का आसानी से संगम कर लेता है यह सिद्धान्त प्राचीन शासन-तन्त्र की प्रमुखतम विचारधाराओं में एक था। उस जमाने में प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार प्राप्त था कि वह अपने कुल-धर्म, जाति-धर्म तथा देश-धर्म के अनुसार आचरण करे। राजा चाहे जिस मत का रहता रहा हो, पर वह अपनी प्रजा के धर्माचरण में कभी भी बाधा नहीं डालता था । अपनी शिक्षा, अपने परम्पराप्राप्त आचार आदि के पालन एवं प्रचार के लिए प्रत्येक व्यक्ति को छूट थी। धर्म अथवा ला (Law) ___ इस निबन्ध में कई बार धर्म शब्द आया है। मानव-अधिकार के सन्दर्भ में धर्म शब्द को सुनकर कतिपय व्यक्ति यह विचार कर सकते हैं कि भारत के प्राचीन १. देखिये-महाभारत, शान्तिपर्व ८७१३-१२ तथा मनुस्मृति ७।११६-१२० । २. देखिये-मनुस्मृति ८१४१ तथा आगे एवं २।२० भी। 'स्वे स्वे धर्मे निविष्टानां सर्वेषामनुपूर्वशः । वर्णानामाश्रमाणाञ्च राजा सृष्टोऽभिरक्षिता ॥ मनु० ७।३५ परिसंवाद -२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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