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________________ सामाजिक समता का प्रश्न : प्राचीन एवं नवीन विषय प्रस्ताव भारतीय शास्त्रों में समता का स्वर किसी न किसी रूप में ऋग्वेद काल से अर्वाचीन काल तक पाया जाता है। इसी प्रकार इसके विपरीत विशिष्टता या विभेद का स्वर भी सदा से मुखर रहा है। इन दो विरोधी प्रवृत्तियों का विकास भारतवर्ष जैसे प्राचीनतम देश के लिए अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता, जिसकी धर्म एवं संस्कृति के निर्माण में प्रारम्भ से ही अनेकानेक जाति-प्रजातियों, स्थानीय एवं आगन्तुक जन-समूहों के रीति-रिवाज, विविध विश्वास एवं धार्मिक अनुष्ठानों का योगदान था। इन सारी विविधताओं के बीच समता के प्रश्न का जीवित रहना और उसके पक्ष में प्रायः सभी प्रमुख पक्षों का आग्रह बना रहना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसके कारण विविधताओं में समन्वय एवं उसके संग्रह की प्रवृत्ति विकसित होती गयी, जो भारतीय संस्कृति की एक विशेषता कही जाती है। इस पूरी पृष्ठभूमि में अध्यात्म के क्षेत्र में वैचारिक स्तर पर समता या समत्व का चिन्तन हुआ और उसका यथासम्भव प्रभाव आन्तरिक साधनाओं पर भी देखा जाता है। जीवन की सम्पूर्ण समस्याओं के बीच इसे समता का एकाङ्गी विकास कहा जा सकता है । इसके आधार पर भारतीय चिन्तकों पर यह एक आरोप भी लगाया जाता है कि समता के आध्यात्मिक चिन्तन के पीछे भारतीयों में जीवन के व्यावहारिक एवं वास्तविक समस्याओं से पलायन की प्रवृत्ति काम करती है। इस आक्षेप के पीछे सम्भव तथ्य की हमें समीक्षा करनी चाहिए। आज के सन्दर्भ में समता का मुख्य प्रश्न सामाजिक समता से सम्बन्धित है। विदित है कि सामाजिकता के प्रश्न के साथ आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक समस्यायें घनिष्ट रूप से सम्बद्ध हैं । जीवन के इन सभी क्षेत्रों को प्रभावित करते हुए समता के प्रश्न का समाधान करना ही आज की प्रमुख समस्या है। इसके अतिरिक्त इस महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर भी ध्यान जाना चाहिए कि समता का व्यक्ति की स्वतन्त्रता या स्वाधीनता के साथ अनिवार्य सम्बन्ध है। समाज में जिस मात्रा में समता को प्रतिष्ठा मिलती है, उसी मात्रा में व्यक्ति अपने विकास के लिए अवसर प्राप्त कर सकेगा। उसी के आधार पर वह अपनी स्वतन्त्रता का उपभोग भी कर सकेगा। उक्त प्रकार की समता एवं स्वतन्त्रता को आज नैतिक मूल्य प्रदान करना होगा, जिन्हें प्राप्त कर निविशेष व्यक्ति समाज में सम्मानित एवं श्रेष्ठ समझा जाय। परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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