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________________ १७४ ............ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाए थे, पर मानव अनुभूति को सापेक्षिक बताते थे और कहते थे कि नयी-नयी परिस्थितियों के सन्दर्भ में सत्य के नये नये स्वरूप प्रकट होते हैं। समाजवैज्ञानिकों के विचार में बड़े बड़े विद्वानों और आचार्यों में महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर गहरा मतभेद उनकी अल्पज्ञता का प्रमाण है । पूर्ण सत्य का ज्ञान हो जाने पर मतभेद नहीं रह सकते । ब्रह्म के विषय में दार्शनिकों में भारी मतभेद सिद्ध करता है कि उसके सम्बन्ध में हमारा ज्ञान पूर्ण नहीं है। गतिशील, परिवर्तनशील संसार में जड़वत् एक विकार को पकड़े रहना सम्भव नहीं है। कालानुकूल ज्ञान का विकास और प्रयोग जीवन के अस्तित्व और प्रगति दोनों के लिए आवश्यक है । सांख्य का परिणामवाद गुणात्मक विकास की सम्भावना को पुष्ट करता है। गुणात्मक विकास युग की माँग है। इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती । प्राचीन भारतीय विद्वानों का हमें आदेश है कि हम अहंकार का त्याग कर जिसे हम अपने से छोटा समझते हैं उनसे भी सत्यज्ञान ग्रहण करें । भीष्म कहते है कि जिस तरह जंगल में चंदन की लकड़ियाँ चुनी जाती हैं उसी तरह सब जगह से ज्ञान इकट्ठा किया जाय। हमें हमारे पूर्वजों का आदेश है कि शत्रु के गुण ग्रहण किये जाएँ और गुरू के दुर्गुण छोड़े जाएँ । दीक्षांत समारोह में गुरु शिष्य को आदेश देता है कि उनके सद्गुणों का ही पालन किया जाय । योगवासिष्ठ में तो कहा गया है कि युक्तियुक्त बालक का विचार ग्रहण किया जाय और यदि ब्रह्मा का भी कोई विचार युक्तिसंगत न हो तो उसे छोड़ दिया जाय । हमारा कर्तव्य है कि हम संकीर्ण मतवाद से ऊपर उठकर व्यापक दृष्टि से संसार के संचित ज्ञान का अध्ययन कर, अपनी संस्कृति के सजीव तत्त्वों को पुष्ट करते हुए विश्व के ज्ञानभण्डार के प्रगतिशील तत्त्वों से अपनी संस्कृति को समृद्ध करें। बौद्ध दार्शनिकों और वैदिक दार्शनिकों का कर्तव्य है कि वे मताग्रह त्याग कर ज्ञान का आदान-प्रदान करें । बौद्ध आचार्य जीवनमुक्त की अवधारणा स्वीकार करें और वैदिक दार्शनिक बोधिसत्त्व की कल्पना का महत्त्व स्वीकार करें। इस विवाद को त्याग कर कि निष्काम कर्म का प्रतिपादन किसने पहले किया, इस सिद्धान्त को सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त के रूप में पुष्ट किया जाय। दार्शनिक और समाज वैज्ञानिक भी ज्ञान का आदानप्रदान करें। दोनों की अध्ययन शैली भिन्न है, पर दोनों में अपने-अपने ढंग से ज्ञान संचय किया है। दोनों के अध्ययन से लाभान्वित होना हम सबका अधिकार और कर्तव्य है। बुद्ध और शंकर की तुलना में हम सब तुच्छ हैं, पर कौन कह सकता है कि भारतमाता इतनी बूढ़ी हो गयी है कि वह अब उन जैसे प्रतिभाशाली सुपुत्रों को जन्म ही नहीं दे सकती ? जो जननी महात्मा गांधी को जन्म दे सकती है, उससे इस युग में भी बहुत आशा की जा सकती है। परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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