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________________ परम्परागत व्यवस्था में व्यक्ति और समाज के सम्बन्ध : मानवविज्ञान दृष्टि १६३ शरीर अपने रचना की निरन्तरता बनाये रखता है, यद्यपि वास्तविक मौलीक्यूल्स, जिससे शरीर बना है, निरन्तर परिवर्तित होता रहता है। सामाजिक संरचना की निरन्तरता सामाजिक सम्बन्धों की निरन्तरता से बनी रहती है। यह संरचना व्यक्तियों का मनमाना मेलजोल नहीं है, बल्कि सामाजिक प्रक्रिया से निर्धारित होती है। व्यक्तियों का एक दूसरे के साथ परस्पर व्यवहार का नियम निश्चित होता है। प्रत्येक व्यक्ति से उन निर्धारित नियमों अथवा नार्स के अनुसार व्यवहार करने की अपेक्षा रहती है और वह व्यक्ति भी यह आशा रखता है कि दूसरे लोग उसके साथ उसी प्रकार का व्यवहार करेंगे। एक विशेष सामाजिक जीवन के प्रस्थापित मूल्यों को संस्था कहते हैं। ___व्यक्ति और समाज के परस्पर सम्बन्धों को समझने के लिए इन संस्थाओं की व्याख्या जरूरी है। व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों की मानव-विचारधाराओं में दो प्रमुख धारायें अथवा दो प्रमुख माडल्स हैं। एक माडल है आदिमजातियों का, जिसमें व्यक्ति आवश्यक रूप से समाज का अपरिहार्य अंग है। समाज के बाहर व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है, कोई कल्पना नहीं है। इसलिए आदिमजातियों में जातीय बनावट, कुल और गोत्र की बनावट, और सम्बन्धों के नियम बड़े मजबूत होते हैं । वहाँ व्यक्ति समाज का अपरिहार्य अंग है, और समाज प्रकृति का। समाज के नियमों को तोड़ने का अर्थ है प्रकृति के नियमों को तोड़ना, जिसका अर्थ होता है अपने आपको तोड़ना। वहाँ सभी व्यक्ति से समान व्यवहार की अपेक्षा है, कोई व्यक्ति विशिष्ट नहीं होता। अतः वहाँ सभी गीत गाते हैं, सभी नाचते हैं । वहाँ कोई अच्छा और बुरा गीत गाने वाला नहीं होता। सभी समान रूप से और सहज रूप से गीत गाते हैं। वहाँ गीत गाना उतना ही सहज और आवश्यक है जितना धार्मिक कृत्य करना, पूजा करना। (चीनी दार्शनिक कानफ्यूसिस ने कहा था कि संगीत और धार्मिक कृत्य दोनों ही सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने में प्रभावकारी हैं।) हमलोगों की विचारधारा में प्रकृति का नियम वह नियम है जो अटल सिद्धान्त के रूप में (कुछ चमत्कारों को छोड़कर) घटित होता है, और नैतिक अथवा सामाजिक नियम वे हैं जो हमें पालन करना चाहिए, किन्तु जिसे हम यदा-कदा तोड़ते भी रहते हैं। आदिम जातियाँ प्रकृति के नियम और नैतिक अथवा सामाजिक नियम में इस प्रकार का भेद नहीं करतीं। उनकी दृष्टि में पुरुष एवं स्त्री को अपरिहार्य रूप से सामाजिक 'नियमों का अनुसरण करना चाहिए। ये सामाजिक नियम चिरन्तन हैं और प्रकृति परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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