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________________ समकालीन भारत में व्यष्टि और समष्टि के सम्बन्धों की दिशा १५९ मुख्य मन्त्री ने बिना लोकदल के निर्णय के, और बिना विधानसभा की सहमति के ये निर्णय कैसे लिए ? ऐसी आचारहीन सरकार, मुख्य मन्त्री और राजनीतिक दल को सत्ता में रहने का कोई भी अधिकार नहीं है। समाज के ये रोग केवल आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं है । शिक्षण संस्थायें भी इन प्रदूषणों से अछूती नहीं रही हैं। छात्रों की अनुशासनहीनता, अध्यापन में आये दिन की बाधायें, परीक्षाओं में सामूहिक नकल, समय पर परीक्षाओं का न होना, परीक्षकों पर अंक बढ़ाने के लिये दबाव और परीक्षकों द्वारा इन दबावों और प्रभावों के अनुरूप कार्य करना, उदाहरण हैं सम्पूर्ण सामाजिक संरचना में तेजी से फैलते हुये कैन्सर के । कल जब इस प्रकार के छात्र सभी संगठनों में नियुक्ति पा जायेंगे तो आप अनुमान कर सकते हैं कि इन संगठनों की क्या दुर्दशा होगी। भारतीय समाज की यह दुरवस्था हमें बाध्य करती है अनेक सैद्धान्तिक और दार्शनिक प्रश्नों पर विचार करने के लिये। मेरी दृष्टि में इन सभी प्रश्नों के मूल में एक प्रश्न है और वह प्रश्न है, व्यक्ति और समष्टि के सम्बन्धों का निर्णय और उसके बाद उन साधनों का चुनाव एवं उपयोग जिनके आधार पर वाञ्छित सम्बन्ध स्थापित किये जा सकते हैं। __मेरे विचार में व्यक्ति और समष्टि के बीच एक निरन्तर और शाश्वत द्वन्द्व है। व्यक्ति पर यदि समष्टि का दबाव न हो तो वह चाहेगा कि उसे अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये पूर्ण स्वतन्त्रता मिले। भले ही यह स्वतन्त्रता स्वच्छन्दता में परिणत हो जाय। समष्टि की रक्षा के लिये यह आवश्यक है व्यक्ति अलग-अलग अपने-अपने स्वार्थों में लग कर धूमायमान न हो जाय। केवल जब सब लकड़ियाँ साथ-साथ जलेंगी, तभी समाज के सर्वांगीण विकास की अग्नि प्रज्वलित हो सकती है और बनी रह सकती है। __भ्रष्टाचार, अनुशासनहीनता, अपने व्यवसाय या वृत्ति के प्रति निष्ठा का अभाव, राजनीतिक दलबदल और अपराध, ये सभी इस बात के प्रमाण हैं कि व्यक्ति अपने स्वार्थों की सिद्धि में लगा हुआ है और समष्टि के हितों पर तनिक भी विचार नहीं कर रहा है । ऐसी स्थिति में समष्टि का जीवन संकटापन्न है । _इस स्थिति की व्याख्या कारणों के एक संकुल से की जा सकती है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में परम्परा से व्यक्ति छोटे-छोटे समूहों (समष्टियों) से बँधा हुआ था, उदाहरणतः परिवार, कुटुम्ब और जाति तथा गाँव। ये समष्टियाँ ही उसके परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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