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________________ ११६ भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ उनके बीच किसी भी प्रकार के सम्बन्ध की चर्चा नहीं की जा सकती। व्यष्टि की इदन्ता को स्थापित करने के लिये हमें प्रत्येक प्रतीत होने वाली व्यष्टि को उसकी समष्टि में विश्लेषित करना होगा, क्योंकि बौद्धदर्शन की विचारित मान्यता के अनुसार प्रत्येक व्यष्टि (वस्तु अथवा व्यक्तित्व) संघात रूप है । अतः इस प्रकार व्यष्टि का आधार समष्टि है और समष्टि तो व्यष्टि के आवृत में आवद्ध है ही, और उसका भी यदि विश्लेषण करें तो व्यवहार प्रतीत व्यष्टियों (इकाइयों) में ही किया जा सकता है, यह बात भी कुछ कम महत्त्वपूर्ण नहीं कि उक्त व्यष्टियों में से प्रत्येक भी अपने में एक समष्टि है। व्यष्टि की इदन्ता पर विस्तृत विचार तो लेखक ने अन्यत्र किया है। यहाँ उसके कुछ मुख्य विन्दुओं का संक्षेप में परिचय देना पर्याप्त होगा। वे हैं १-हम सब इस बौद्ध मान्यता से परिचित हैं कि प्रत्येक व्यक्ति, जब तक कि निर्वाण प्राप्त नहीं कर लेता, जन्म, शैशव, यौवन, जरा, मरण, पुनर्जन्म तथा यों अनेक जन्मों के भवचक्र में, सदैव बदलता हुआ चलता है। लगभग ५५० जातककथायें भगवान बुद्ध के उस 'व्यक्तित्व' के उदाहरण हैं। प्रश्न यह है कि मनुष्य, पशु, पक्षी के अनेक जन्मों में से होकर चलने वाला व्यक्ति' किस प्रकार 'वही' कहा जा सकता है जबकि वह बुद्ध मान्यता के अनुसार ही नित्य नहीं अनित्य है और परिवर्तन मात्र माया अथवा भ्रमरूप न होकर सत्रूप है और सम्भवतः ऐसी मान्यता के फलस्वरूप ही बौद्धमत में अनात्म की धारणा भी स्वीकृत है। व्यक्ति के एक जन्म से दूसरे जन्म में बदलाव को बौद्धमत में मात्र देशान्तरण (ट्रांसमाइग्रेशन) न मान कर परिणमन अथवा क्रमिक रूपान्तरण (ट्रांसफारमेशन) मान लेने पर यह बात कदाचित् समझ में नहीं आती कि कैसे भवचक्र के क्रम में, प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धान्त के अनुरूप, एक के पश्चात् दूसरा अत्यन्त भिन्न रूप व्यक्तित्व उदित होता है ? वह विकासोन्मुख तारतम्यता (क्रमिकता) जो हमें अवतारवाद की वैष्णव कल्पना में लक्षित होती है, बौद्ध जातकों के सन्दर्भ में उसका नितान्त अभाव है। तथापि यदि बौद्ध ऐसा दावा करें कि उनका क्रम वर्णन वस्तुस्थिति के सर्वथा अनुकूल नहीं तो वैष्णव वर्णन की अपेक्षा उसका अधिक निकटवर्ती प्रतिनिधित्व करता है तो उनके १. जनवरी १९७६ में लखनऊ विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग द्वारा आयोजित एक अन्तर राष्टीय विचार गोष्ठी में प्रस्तुत लेख में; जिसका कि (हिन्दी अनुवाद) 'बौद्ध परिप्रेक्ष्य में व्यक्तित्व की इदन्ता' शीर्षक से दार्शनिक त्रैमासिक के वर्ष २१ (अक्टूबर १९७२) के अंक ४ में प्रकाशन हुआ है। परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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