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________________ १०० भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएँ संसार का वास्तविक स्वाभाविक स्वरूप कुछ और ही है और हमने उसे मिथ्या रूप दे रखा है। अनेक दार्शनिकों का मत है कि संसार को संवार कर भूतल पर स्वर्ग उतारा जा सकता है। किन्तु बुद्ध संसार के प्रति ऐसा दृष्टिकोण नहीं रखते। वे इस बात की प्रशंसा तो करते हैं कि प्राचीन काल में सब लोग स्वधर्म-स्वकर्म-निरत थे, किन्तु उनकी प्रशंसा का यह अर्थ नहीं किया जा सकता कि यदि सब लोग स्वधर्म स्वकर्म के प्रति निष्ठावान् हो जायँ तो उनके 'सब्बं दुक्खं' सिद्धान्त की सार्थकता में कोई कमी आएगी। उनके कथन का तात्पर्य बस इतना हो सकता है कि यदि संसार में रहना ही है तो धर्म-कर्म-निष्ठ होकर रहना अधिक उपादेय है। यहाँ बुद्ध लोकव्यवहार की भाषा बोलते पाये जाते हैं, और लोकव्यवहार, लोकसंवृति, उनका विषय ही नहीं है। बुद्ध का दुःख-विश्लेषण मार्क्स प्रभृति समष्टिवादियों के दुःख-विश्लेषण से तत्त्वतः भिन्न है। मार्क्स के अनुसार एक प्रकार के दुःख प्रकृति-जन्य हैं, जो प्रकृति पर विज्ञान की उत्तरोत्तर विजय के कारण तेजी से कम होते जा रहे हैं; दूसरे प्रकार के दुःख मानव-जन्य हैं, जो न्यायानुप्राणित शोषणविहीन लोकव्यवस्था स्थापित करके दूर किये जा सकते हैं। बुद्ध व्याधि, जरा, मृत्यु रूपी दुःखों की चर्चा करते हैं । विज्ञान इन दुःखों का आमूल उच्छेद करने के लिए कटिबद्ध है। बुद्ध इन दुखों को स्वीकार करके रह जाते हैं और झट निर्वाण, संसारोच्छेद का नुस्खा पेश कर देते हैं, जबकि विज्ञान जीवन का उच्छेद किये बिना इनके उच्छेद के लिए वद्धपरिकर है, और इस दिशा में उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। दुःख चेतना, करुणा, महाकरुणा को जन्म देती है। यह करुणा श्रावक और प्रत्येक बुद्ध में सत्त्वावलम्बना होती है। दुःखग्रस्त प्राणियों के दर्शन से उत्पन्न होती है, जबकि सम्बुद्ध में वह वस्तुधर्मा होती है। वस्तुतः बुद्ध की दुःख-दृष्टि आरम्भ में तो मत्वावलम्बना ही होती है, किन्तु वह आगे चलकर वस्तुधर्मा होती है अर्थात् बुद्ध का दुःख अनन्तः भौतिक और मानसिक न रह कर आध्यात्मिक हो जाता है। उनकी करुणा की भी यही दशा है। सत्त्वावलम्बना दुःखता और तजन्य तत्त्वावलम्बना करुणा ही वस्तुधर्मा दुःखता की जनक है, और वस्तुधर्मा दुःखना वस्तुधर्मा करुणा को जन्म देती है। अतः कहा जा सकता है कि यदि प्राणी दुःख से मुक्त हो जायँ तो वस्तुधर्मा दुःखता भी निवृत्त हो जायगी। जहाँ तक निर्वाण का प्रश्न है। जो बुद्ध धर्म का चरम लक्ष्य है, वह समष्टि के बहुत काम का नहीं । देखिए, सोपाधिशेष निर्वाण की दशा में अर्हत् अपने को लोक से असंपृक्त रखता है, क्योंकि उपादान-रूपी इंधन तब भी विद्यमान रहता है और परिसंवाद-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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