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________________ विमलकीर्तिनिर्देशसूत्र के अनुसार व्यष्टि एवं समष्टि का सम्बन्ध प्राणियों की समानता का आदर्श इस मान्यता पर निर्भर करता है कि वे सभी एक सृष्टिकर्ता = पिता = ईश्वर की सन्तान हैं अथवा एक ही ईश्वर के अंश हैं । परन्तु बौद्धमत अनीश्वरवादी और अनात्मवादी है। इस मत में सभी प्राणियों की समानता एवं अखण्ड एकता के आधार हैं (१) सभी प्राणियों की अनात्मकता, (२) सभी प्राणियों की नश्वरता, (३) सभी प्राणियों की दुःखितावस्था, (6) सभी प्राणियों में सुखकामना, (५) सभी प्राणियों में भय के प्रति हेयभाव तथा (६) सभी प्राणियों में मृत्यु के प्रति हेयभाव का विद्यमान होना। ये छ तथ्य हैं। इन सार्वभौम एवं विश्वव्यापी तथ्यों के कारण प्रत्येक व्यक्ति महत्त्वपूर्ण है, आदरणीय है और परिरक्षणोय है। किसी एक व्यक्ति को अपने आपको विशिष्ट समझने का न तो बौद्धिक औचित्य है और न नैतिक अधिकार है। परमार्थतः सभी प्राणी मायोपम, स्वप्नोपम अथवा खपुष्पवत् हैं। व्यवहारतः सभी प्राणी निःस्वभाव, दुःखी तथा मरणधर्मा है। अतएव सभी व्यक्ति और सभी प्राणी एक समान है, परस्पर अभिन्न है-परमार्थतः तथा व्यवहारतः दोनों ही दृष्टियों से वे सम हैं। उपर्युक्त दृष्टियों से विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्ति और व्यक्ति के बीच, और व्यक्ति तथा समाज के बोच, जो भिन्नताएँ और विविध संघर्ष है, उनका मूल कारण अज्ञान अथवा प्रज्ञा का अभाव है। बौद्ध शास्त्रों के अनुसार आत्मवाद को भूमि पर पैदा होने वाला अहंकार अथवा आत्मभाव इसी अज्ञान का नामान्तर है। अहंकार और आत्मभाव में कोई अन्तर नहीं है। यह आत्मभाव परमात्मभाव का ही लघु रूप है और यही करुणा अथवा अहिंसा का शत्रु है । प्रज्ञा की भूमि पर आत्मभाव को खेती नहीं हो सकती है और व्यक्ति-व्यक्ति के बीच भेदभाव पैदा नहीं हो सकते हैं । धम्मपद १२९-१३० में भगवद् वचन है सब्बे तसन्ति दण्डस्स सब्बे भायन्ति मच्चुनो। अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये ॥ सब्बे तसन्ति दण्डस्स सब्जेसं जीवितं पियं । अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये ॥ आचार्य आर्यदेव ने एक कारिका में कहा है धर्म समासतोऽहिंसां वर्णयन्ति तथागताः। शून्यतामेव निर्वाणं केवलं तदिहोभयम् ॥ --चतुःशतककारिका १२-२३ (२९८) परिसंवाद २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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