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________________ व्यक्ति और समाज का सम्बन्ध और उसका विकास दार्शनिक सम्मत विशृङ्खल पुंजवाद से ही पूर्णरूप में प्रभावित हैं । क्योंकि भारतीय संविधान के अनुसार प्रत्येक भारतीय वयस्क को अपना-अपना स्वतन्त्र मताधिकार प्राप्त है । कहने का सारांश यह कि बौद्ध दार्शनिक जन जिस प्रकार अणु पुंजात्मक भूत वर्ग के प्रत्येक अणु को पूर्ण स्वतन्त्र अर्थात् परमुखानपेक्षी अतएव स्वलक्षण मानते हैं, ठीक उसी प्रकार आज की राजनीति में प्रत्येक वयस्क मानव को पूर्ण स्वतन्त्र, परमुखानपेक्षी, फलतः स्वलक्षण माना गया है । इन बातों की ओर ध्यान देने पर यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण जँचता है कि इस बौद्ध दार्शनिक परिसंवाद गोष्ठी के अन्दर परिसंवाद का विषय व्यष्टियों के बीच तथा व्यष्टि और समष्टि के बीच मान्य सम्बन्ध को रखा गया है । यह सचमुच बौद्ध दार्शनिकों के समक्ष एक महान् प्रश्न चिह्न है कि वह सम्बन्ध क्या है और कैसे है ? क्योंकि बौद्ध दृष्टिकोण में तात्त्विक स्वलक्षणता के रक्षार्थ सम्बन्ध में तात्त्विकता नहीं मानी जा सकती । ७७ बौद्धों की ओर से इसके सम्बन्ध में गहराई से सोचने पर जो कुछ निष्कर्ष निकलता है उसमें यह ज्ञातव्य है कि बौद्धदर्शन किसी भी प्रकार के सम्बन्ध को पारमार्थिक सत्य नहीं मानता। परन्तु अद्वैतवेदान्त दर्शन में जगह-जगह पर जिस प्रकार सत्यगत सापेक्षता का स्पष्ट उल्लेख किया गया मिलता है उस प्रकार बौद्ध दर्शन में स्पष्टभाव से उसका उल्लेख न होने पर भी वहाँ भी वह सामाजिक व्यवहार के निर्वाह के लिए अवश्य मान्य है । इसलिए व्यक्त्यात्मक व्यष्टियों के बीच एवं व्यक्त्यात्मक व्यष्टि और समाजात्मक समष्टि के बीच कल्पित रूप में सम्बन्ध सामान्य को मान्यता मिल सकती है । इसका आभास इस प्रकार मिलता हुआ दीख पड़ता है कि बौद्ध दार्शनिक सिद्धान्त के अनुसार पारमार्थिक तत्त्व बाह्यास्तित्त्ववादियों के यहाँ भी विशेष ही होता है, सामान्य पारमार्थिक तत्त्व नहीं माना जाता । फिर भी उसे अनुमान प्रमाण का विषय माना गया है । अतः सामान्य में आपेक्षिक सत्यता सूचित होती है । अब रही बात इसकी की वह सम्बन्ध है क्या ? तो इसके सम्बन्ध कहना यह है कि यह बात पहले बतलायी जा चुकी है कि व्यक्ति की चेतनता और अचेतनता के आधार पर समाज को भी चेतन समाज और अचेतन समाज, इस प्रकार दो भागों में विभक्त मानना चाहिए। तदनुसार उक्त दो समाजों के अन्दर यहाँ चेतन में परिसंवाद २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014013
Book TitleBharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadheshyamdhar Dvivedi
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1981
Total Pages386
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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