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________________ जैन विचारों की आधुनिक प्रासंगिकता 13 पास उपलब्ध है। इसका एक स्पष्ट कारण बताया जाता है- 'प्रतिरोध का भय' । हर शक्तिशाली राष्ट्र को यह समझ है कि यदि उसने अणुशक्ति का उपयोग किया, तो उसके विरुद्ध भी उस शक्ति का उपयोग किया जा सकता है.। आतंकवादी गतिविधियों में प्रायः देखा जाता है कि जब विरोधी सशक्त हो जाते हैं तो आतंकवादी भूमिग्रस्त हो जाते हैं। तो, इससे एक निष्कर्ष तो स्थापित हो जाता है कि हिंसात्मक मानसिकता पर भी नियन्त्रण सम्भव है। यह ठीक है कि ऊपर के उदाहरणों में ऐसा नियन्त्रण प्रतिरोध की सम्भावना तथा उससे जनित ‘भय' पर आश्रित है। किन्तु, इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि हिंसात्मक मानसिकता में भी बदलाव सम्भव है। पुनः, सामान्य अनुभव यह भी है कि यदि इस प्रकार के नियन्त्रण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है, तो शनैः-शनैः मानसिकता में बदलाव आने लगता है। बड़े राष्ट्रों ने स्वेच्छा से निःशस्त्रीकरण प्रारम्भ कर दिया है, कुछ आतंकवादी स्वेच्छा से आतंक के मार्ग का त्याग कर देते हैं। तो अब भी हिंसात्मक मानसिकता की यथार्थता की पहचान भी जीवित है, और उसमें बदलाव की सम्भावना भी स्वत: स्पष्ट है। इसी सन्दर्भ में जैन अहिंसा-विचार की प्रासंगिकता है; क्योंकि जीवन में हिंसात्मक वृत्ति की वास्तविकता एवं उसमें बदलाव की सम्भावना-इन्हीं तथ्यों की स्पष्ट अनुभूति में जैन विचारकों ने अहिंसा-विचार को इतना व्यापक बना दिया। यह ठीक है कि अहिंसा-अनुशीलन का जो चरम रूप है, उस रूप में अहिंसा का पालन साधारण व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं। किन्तु वह रूप तो अहिंसा-अनुशीलन का आदर्श है । उद्देश्य है मानसिकता में बदलाव उत्पन्न करने की—और आदर्श की व्यापकता और गहनता की अनुभूति इस बदलाव का एक उपकरण बन सकती है। 'प्रतिरोधात्मक तर्क' से भी इस बात की पुष्टि होती है। यदि प्रतिरोध की सम्भावना हिंसात्मक वृत्ति को नियन्त्रित कर सकती है, तो यह बात भी जैन विचार को समर्थन ही दे रही है। 'अहिंसा' का मूलार्थ है 'जीव का हर रूप में पूर्ण सम्मान' । प्रतिरोधात्मक तर्क इस मूल विचार का समर्थक है। हमें जब यह सम्भावना दिखाई देने लगती है कि अन्य भी हमारे ‘जीवत्व' का सम्मान नहीं कर सकते, जब हमें यह समझ आ जाती है कि यदि हमारे लिए अन्य का जीवन तुच्छ है, तो उनके लिए हमारा जीवन भी तुच्छ है, तब हम अन्य के 'जीवत्व' का भी सम्मान प्रारम्भ कर देते हैं । जैन दर्शन में अहिंसा के पक्ष ऐसा ही एक तर्क दिया भी गया है। कहा गया है कि हमें अन्य जीवों के प्रति वैसा ही व्यवहार करना चाहिए, जैसा कि हम उनसे अपने लिए अपेक्षा रखते हैं । इस प्रकार के विचार से हिंसात्मक वृत्ति पर रोक लगती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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