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________________ Vaishali Institute Research Bulletin No.8 प्रस्तुत भाषण भी इसी दिशा में एक प्रयास है । स्पष्टतः यह प्रयास बड़ा ही संक्षिप्त एवं आंशिक है, किन्तु इसका मूल उद्देश्य है जैनशास्त्र के विद्वानों को एक आह्वान देना कि वे अपनी शास्त्रीयता को त्यागें नहीं, किन्तु उनमें निहित सम्भावनाओं को भी उभारें और उन्हें नये परिवेश में प्रतिष्ठित करें। यह 'नया परिवेश' क्या है? इस नये परिवेश की प्रासंगिकता जैनमुनियों जैसे विशिष्ट व्यक्तियों के लिए नहीं; क्योंकि वे तो एक चरम आदर्श के प्रति पूर्ण समर्पण कर अपने अनुशासन एवं अपनी साधना में रत हैं। इस ‘नये परिवेश' का सम्बन्ध तो साधारण-सामान्य मानव के लिए है, जिसे इस नये परिवेश में जीना है। आज का मानव एक विचित्र मोड़ पर खड़ा है । आदर्श-सम्बन्धी-चित्रण एवं निर्देश, धर्म एवं मुक्ति के गूढ़ रहस्य उसे प्रभावित अवश्य करते हैं, किन्तु, आधुनिकता के जीवन में जीने को वह इस प्रकार बाध्य है कि इससे सरलता से विमुख भी नहीं हो सकता। उसके समक्ष समस्या है कि कैसे वह इन गूढ़ विचारों को अपने आज के जीवन में उतारे। वह उन विचारों का वैसा व्यावहारिक पक्ष ढूँढ़ता है, जिसे वह आज की माँगों के साथ आत्मसात् कर सके। आदर्श की परम्परा से प्राप्त चित्र उसे प्रभावित करते है, किन्तु उद्वेलित नहीं कर पाते, मात्र उनकी आवृत्ति से उसे अपने जीवन में आमूल परिवर्तन करने की प्रेरणा नहीं मिलती। उसकी समस्या है कि वह किस प्रकार इन सत्यों को निकट से देखे-समझे कि उसमें इन्हें आत्मसात् करने की आतुरता भी जागे। इसके लिए आवश्यक है कि इन सत्यों को बिना विकृत किये इस रूप में प्रस्तुत किया जाय कि वह आज की मानसिकता को सहज रूप में ग्राह्य हो । जैन दर्शन में तो इस प्रकार के अर्थ-निरूपण की सम्भावना स्पष्टतया निहित है। इसी उद्देश्य से अकलंक तथा आचार्य हेमचन्द्र जैसे चिन्तकों ने अपने काल के अनुरूप अर्थ-निरूपण करते हुए 'जैन न्याय' तथा 'प्रमाण-मीमांसा' को व्यवस्थित किया था। किन्तु, अभी मैं इस दर्शन के उस पक्ष में प्रवेश नहीं कर रहा, अभी मैं जैन दर्शन के कुछ मूल एवं केन्द्रीय विचारों के समसामयिक अर्थ-निरूपण का प्रयत्न कर रहा हूँ। वैसे सामान्यत: माना जाता है कि जैन दर्शन की समस्त चर्चाएँ 'सात तत्त्वों' पर ही केन्द्रित हैं—जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष । वैसे इन सभी तत्त्वों पर किये गये जैन विचारों की आधुनिक प्रासंगिकता का निर्देश स्पष्ट रूप में किया जा सकता है, किन्तु, वह अपने में एक बृहत् योजना है। अत: आज मैं सामान्य रूप में इनपर विचार करूँगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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