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________________ जैन विचारों की आधुनिक प्रासंगिकता डॉ. बसन्त कुमार लाल मुझे यह स्पष्ट चेतना है कि जैन विचारों पर आयोजित ऐसी संगोष्ठियों में मुख्य अभिभाषण देने का मैं अधिकारी नहीं। फिर भी, मैंने प्रियवर डा. युगल किशोर मिश्र जी का आमन्त्रण स्वीकार कर लिया। एक तो इस कारण कि उनके आग्रह को टालना मेरे लिए सरल नहीं था, और दूसरे इस कारण कि उनका आग्रह यह नहीं था कि मैं इसके शास्त्रीय विवेचन के किसी पक्ष को उभारूं, बल्कि यह था कि जैन विचारों की आधुनिक प्रासंगिकता पर कुछ विचार करूँ। विचारों की शास्त्रीयता जब नये परिवेश में मात्र अपने विचारों की अनुरूपता या उसके किसी अंश का सादृश्य पहचान कर सन्तुष्ट होने लगती है, तब विचार की वास्तविक प्रगति अवरुद्ध होने लगती है, और विचार कुछ विद्वानों की चर्चा में बँध कर रुका-सा रहता है। भारतीय दर्शनों के साथ ऐसा ही हुआ है। परिवर्तन की तीव्र गति के साथ हम चल नहीं पाये, और आत्मसन्तुष्टि के लिए हर नई समस्या को मात्र यह कह टालते रहे कि इसमें कुछ नया नहीं है तथा यह कि ऐसे विचार हमारी परम्परा में हैं। परिणाम यह हुआ कि हमारे विचार 'स्थिर' हो गये, एक स्थान पर रुके रहे और कुछ विद्वानों की थाती बन कर बँधे रहे । विचारों को पीछे खींचते रहने से विचार कुण्ठित होते रहते हैं; विचारों की प्रगति का अर्थ है उन्हें आगे बढ़ाना, उन्हें नये परिवेश में प्रतिष्ठित करना । और यह कार्य दर्शन के लिए उपयुक्त है; क्योंकि दार्शनिक विचार मरते नहीं, उनमें शाश्वतता होती है। दर्शन 'दृष्टि' है, 'वाद' नहीं । 'वाद' खण्डित होते हैं, असिद्ध हो जाते हैं, गलत सिद्ध होते हैं; दृष्टि अयथेष्ट हो सकती है, अपूर्ण हो सकती है, आंशिक हो सकती है किन्त, खण्डित नहीं होती, गलत सिद्ध नहीं होती। यह तो एक झरोखा खोलती है, एक दृश्य प्रस्तुत करती है, वह भी इस प्रकार कि जब भी कोई उस झरोखे से झाँके, तब उसे वही दृश्य दिखाई देगा। इस प्रकार की दृष्टि सदा जीवित रहती है और इस अर्थ में हर दर्शन सदा वर्तमान का दर्शन होता है, उसकी हर काल के लिए अपनी प्रासंगिकता है। आवश्यकता है उसकी इस समकालीन प्रासंगिकता को उभार कर प्रकाश में लाने की । दर्शनशास्त्री इसमें विकृति की सम्भावना देखते हैं, किन्तु यह तो उस विचार की सम्पुष्टि है-उसका नये परिवेश में मुखरित होना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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