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________________ 146 Vaishali Institute Research Bulletin No. 8 इन कवियों ने उन्हीं को स्वीकार किया है, जो तालवृत्त या मात्रावृत्त के रूप में परिवर्तित किये जा सकते हों। वर्णवृत्त को इन कवियों ने मात्रावृत्त के रूप में ही व्यवहृत किया है। उदाहरण के लिए भुजंगप्रयात छन्द को लिया जा सकता है। इस प्रसिद्ध वर्णवृत्त में चार यगण ( Iऽऽ) होते हैं। अपभ्रंश कवियों ने एक गुरु के स्थान पर दो लघु रखने की स्वतन्त्रता सर्वत्र ली है। एक यगण में पाँच मात्राएँ होती हैं। अतः इसके एक चरण को पाँच मात्राओं के ताल में गाया जाता है और पाँच मात्रा के बाद ताल पड़ता है। इस तरह का प्रयोग कडवक-शैली में रचित प्रबन्ध-काव्यों में बहुत हुआ है। अपभ्रंश-काव्यों में वर्णवृत्त-प्रयोग की एक विशिष्टता यह है कि उनमें यमक या अन्त्यानुप्रास की योजना सामान्यतः होती है । स्वयम्भू ने संस्कृत के वर्णवृत्तों को मात्रिक मानकर ही उनका विवेचन किया है, वर्णवृत्त मानकर नहीं। वैदिक ऋषियों की तरह प्राकृत-अपभ्रंश के कवि भी छन्द के क्षेत्र में उन्मुक्तता के प्रेमी ही रहे । अपने अविकसित रूप में ये छन्द लोक में प्रचलित रहे होंगे, किन्तु जब पण्डितों ने इन्हें अपना लिया, तब इन्हें व्यवस्थित करने एवं चिरस्थायी रूप देने के लिए नियमों-उपनियमों द्वारा इन्हें नियन्त्रित करने की चेष्टा की । इतना होते हुए भी इन छन्दों को देखने से ऐसा लगता है कि इनकी मूल प्रकृति स्वतन्त्रता की है। नियन्त्रण-रेखा के भीतर रहते हुए भी इनकी रचनाविधि में कवियों ने कुछ-न-कुछ स्वतन्त्रता अवश्य रखी है। उदाहरण के लिए, प्राकृत-अपभ्रंश में लय को अक्षुण्ण रखने के लिए लघु को दीर्घ और दीर्घ को लघु मानकर पढ़ने की स्वतन्त्रता है। हरिगीतिका २८ मात्राओं का मात्रिक छन्द है, जिसमें १६-१२ मात्राओं पर यति रखी जाती है। कहीं-कहीं १४-१४ मात्राओं पर भी यति मानी गई है। एक विचार तो यह भी है कि ७-७ मात्राओं के चार समूह से भी इसका निर्माण हो जा सकता है। जैसे : हरिगीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका ।। अपभ्रंश-कवियों की छन्दोरचनागत स्वतन्त्रता का एक रूप है दो विभिन्न छन्दों को मिलाकर नवीन छन्दों की सृष्टि । छप्पय, रड्डा, वस्तु, कुण्डलिया, अधिकाक्षर, सोपान, काव्य, चन्द्रायण, रासक आदि छन्द इसी प्रकार के हैं । इन्हें द्विभंगी (Stropic Couplets) भी कहते हैं। प्राकृत-अपभ्रंश-साहित्य विषय एवं परिमाण, दोनों ही दृष्टियों से विशाल है। आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं, विशेषतः हिन्दी पर इसका कितना प्रभाव पड़ा है, यह बताना व्यर्थ है। इनके प्रभाव का अनुमान हम इसी से लगा सकते हैं कि अधिकांश ऐसे छन्द, जो हिन्दी में बहुत लोकप्रिय रहे हैं, सीधे अपभ्रंश से हिन्दी में आये हैं, संस्कृत से नहीं। दोहा, सोरठा, चौपाई, छप्पय, कुण्डलिया, पद्धरि आदि छन्दों का मूल उत्स Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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