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________________ प्राकृत-अपभ्रंश छन्द : परम्परा एवं विकास 145 मात्रिक छन्दों की प्रकृति वैदिक और लौकिक संस्कृत के छन्दों की प्रकृति से सर्वथा भिन्न है। छन्दोगत सांगीतिक सौन्दर्य की सृष्टि के लिए यह न तो वैदिक छन्दों की तरह स्वरों के उतार-चढ़ाव पर निर्भर है और न वार्णिक वृत्तों के समान लघु-गुरु वर्गों की निश्चित आवृत्ति पर, बल्कि इसका आधार गति या लय है। लय का अनुसरण ही मात्रिक छन्द में प्रधान रहता है। अतः संस्कृत वर्णवृत्तों की तरह गण इसकी इकाई नहीं है, बल्कि इसकी इकाई मात्रा है। इसलिए इसमें गणों का महत्त्व न्यून हो जाता है। संस्कृत के आचार्यों ने तीन प्रकार के मात्रिक छन्दों की चर्चा की है—द्विपदी, चतुष्पदी और अर्धसमचतुष्पदी। द्विपदी का प्रतिनिधित्व गाथा छन्द करता है। चतुष्पदी मात्रावृत्त के अन्तर्गत मात्रासमक वर्ग में आनेवाले छन्दों की गणना की जाती है। जैसे उपचित्रा, विश्लोक, चित्रा, वानवासिका आदि। अर्धसमचतुष्पदी छन्दों का प्रतिनिधित्व वैतालीय वर्ग के छन्द करते हैं। कुछ ऐसे भी छन्द हैं, जो चतुष्पदी हैं, किन्तु मिश्रित वर्ग के हैं; जैसे नटचरण, नृत्तगति, अचलधृति, शिखा, खंज आदि । संस्कृत आचार्यों ने इन मात्रिक छन्दों के परिमापन के लिए चतुर्मात्रिक गणों (ऽऽ, ।ऽ ।, 5 ॥, ॥s, ॥ ॥) का प्रयोग किया है। आचार्य हेमचन्द्र ने अन्यमात्रिक गणों के मापन के लिए दो से छह मात्राओं तक के गण स्वीकार किये हैं : द्वित्रिचतुः पञ्चषट्कला दतचपषा द्वित्रिपञ्चाष्टत्रयोदशभेदमात्रागणाः ॥ (छन्दोऽनु. १.३) द गण-दो भेद (s, ॥) त गण-तीन भेद (15,। ) च गण–पाँच भेद (55, 15, 151, 5 ॥, I) प गण-आठ भेद ( 15 1, 5 15, 5, 55 ।, ॥ऽ ।, 15 1, 5 , ) ष गण-तेरह भेद (ऽऽऽ, ॥ऽऽ ।ऽ 15, 55, ms, Iऽऽ ।, 5 15 ।, IIIS I, ऽऽ ॥, 15 ।।, 5 , ) हेमचन्द्र ने द्विपदी, चतुष्पदी और षट्पदी का उल्लेख किया है। कविदर्पणकार ने इनसे विस्तृत फलक को स्वीकार करते हुए इसके ग्यारह भेद किये हैं : द्विपदी, चतुष्पदी, पंचपदी, षट्पदी, सप्तपदी, अष्टपदी, नवपदी, दशपदी, एकादशपदी, द्वादशपदी और षोडशपदी। इनमें कुछ ऐसे भी भेद हैं, जिन्हें मिश्र या प्रगाथ छन्द कहते हैं । प्राकृत-अपभ्रंश में वर्णवृत्त : प्राकृत-अपभ्रंश के छन्द मुख्य रूप में मात्रावृत्त ही हैं, किन्तु इनके कवियों ने संस्कृत के वर्णवृत्तों को भी अपने काव्यों में स्थान दिया है। वर्णवृत्तों में बृह्तू समुदाय में से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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