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________________ 120 Vaishali Institute Rescarch Bullctin No.8 दीपावली के दिन हुआ। मगध के इस क्षेत्र में उनके ग्यारहों गणधर थे। गणधरों में इन्द्रभूति और श्राविकाओं में आर्या चन्दना प्रमुख थी। ये सभी गणधर वर्द्धमान महावीर की शरण में आने से पूर्व वेदविद्, यज्ञवादी राजमान्य ब्राह्मण थे। उनके श्रोताओं में मगधराज श्रेणिक बिम्बिसार प्रमुख थे। यद्यपि बौद्ध साहित्य के स्रोतों के अनुसार बिम्बिसार और उसका पुत्र, अजातशत्रु भी उनके विनम्र श्रावकों में थे। आचरण और चिन्तन की समानभूमि : दोनों ही महापुरुषों के चिन्तन और आचरण पर युग की परिस्थितियों का प्रभाव पड़ा। वैदिक चिन्तन में जड़ता और स्थूल सुखोपभोगों के प्रति चिन्तन गहरी आसक्ति आ गई थी, जिसके विरुद्ध कई अवैदिक मतों का प्रचार हो रहा था, जिनमें अक्रियावादी पूर्ण कश्यप, अणुवादी पकुध कच्चायन, आजीवक सम्प्रदाय के मक्खलि गोशाल आदि मुख्य थे। इन आचार्यों ने वेदों की प्रामाणिकता पर प्रहार किया। महावीर और बुद्धपूर्व भारत में यज्ञ की परम्परा बहुत समृद्ध हुई और अनेक अवसरों पर यज्ञों में बलि दी जाने लगी थी। समाज क्रूरता और शोषण का शिकार हो रहा था। उन्हें पशुबलि के आधार पर स्वर्ग का मानों टिकट दिया जाने लगा। पूरा समाज तब हिंसा और शोषण का शिकार हो रहा था। मक्खलि गोशाल तथा अन्य अनेक धर्मप्रचारकों ने इन झूठे आडम्बरों और शोषण का विरोध किया ही था। पर इन दोनों महापुरुषों ने चिन्तन और तदनुरूप आचरण के क्षेत्र में आदर्श प्रस्तुत किया। इसका आधार मुख्य रूप से अहिंसा था। जब उन्हें यह बताया गया कि वेदों में हिंसा विहित है, तब ऐसी हिंसावृत्ति का प्रतिपादन करनेवाले वेदों को इन महापुरुषों में प्रामाणिक मानने से भी इनकार कर दिया। दोनों ही महापुरुषों की कर्मभूमि, सामाजिक और धार्मिक परिवेश और उपदेश के तात्त्विक चिन्तन में बहुत कुछ समानता है। यह बात अलग है कि जैनधर्म की परम्परा सदियों पहले से भारतीय समाज में चली आ रही थी और बौद्धधर्म का प्रवर्तन गौतम बुद्ध ने स्वयं किया था । जैनों और बौद्धों ने समानरूप से जितेन्द्रियता या ब्रह्मचर्य-पालन पर बल दिया था। इस दृष्टि से दो बातों पर हमारा ध्यान जाता है कि महावीर और बुद्धपूर्व भारत में यदि तथाकथित यज्ञों में स्वर्गोपभोग की कामना से बलिप्रथा प्रचलित थी तो समानान्तर रूप में इन स्थूल भौतिक उपलब्धियों के खिलाफ उपनिषद् की सुदीर्घ और चिन्तन-समृद्ध परम्परा भी मिलती है, जिनमें 'प्रेय' जीवन की तुलना में श्रेय' जीवन को श्रेष्ठतर माना गया है । कठोपनिषद् में 'नाचिकेता' और 'यम' के संवादों में इस परम सत्य का, अमृत तत्त्व का प्रकाश हुआ है। आत्मविद्या, ब्रह्मज्ञान, सत्य, आत्मप्रसार जैसे उदात्त चिन्तन का व्याख्यान कालातीत और विश्वव्यापी है । उपनिषदों के अक्षर-अक्षर में उसी अक्षर ब्रह्म का प्रतिपादन है। इन उपनिषदों में मनुष्य की आन्तरिक शक्ति के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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