SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीर और बुद्ध के जीवन और उनकी चिन्तन-दृष्टि 119 दृष्टिगोचर होता है। यदि इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति आदि महावीर के आदि गणधर शिष्य ब्राह्मण-परम्परा में पारंगत हैं, तो बुद्ध के गया काश्यप, जटिल काश्यप और उरुवेल काश्यप भी शिष्यों की उसी प्रकार ब्राह्मण-विद्या में पारंगत हैं । वे भी बुद्ध के प्रभाव में आकर हजारों मण्डली के साथ बौद्धधर्म की शरण में प्रतिष्ठित होते हैं । इन विद्वानों द्वारा बौद्धधर्म की दीक्षा लेने के बाद समस्त मगध साम्राज्य में बौद्धधर्म के अनुकूल परिवेश तैयार हो जाता है । महावीर वर्द्धमान के एकादश गणधरों की भाँति धर्मचक्र प्रवर्तन के बाद बुद्ध की प्रमुख शिष्य मण्डली प्रभावशाली रूप में उभरती दिखाई देती है, उनकी संख्या भी ग्यारह ही है। पाँच भद्रवर्गीय भिक्षुओं के अतिरिक्त तीन कश्यप-बन्धु दो युगल मित्र-सारिपुत्त-मौदगल्यायन और एक महाकश्यप = कुल ग्यारह होते हैं। धर्मप्रचार के समान क्षेत्र : दोनों ही महापुरुषों की तपस्या और ज्ञान-प्राप्ति के बाद धर्मप्रचार के क्षेत्र भी लगभग एक ही है । वैशाली, राजगृह, नालन्दा, पावापुरी, श्रावस्ती, कौशाम्बी, काशी, चम्पा, उज्जैन, मिथिला, पूर्वी उत्तरप्रदेश के बहुत से छोटे-बड़े नगरों में दोनों ही महापुरुष जाते हैं। गौतम बुद्ध का तपस्या-काल छह वर्षों का था, और इस अल्प अवधि में उनकी यात्रा मुख्य रूप से वैशाली और मगध के बीच हुई। महावीर को कैवल्य-ज्ञानप्राप्ति में बारह वर्ष लगे, स्वभावतः उनकी तपस्या की अवधि और समय कहीं दूर तक फैला लगता है । गौतम बुद्ध की अपेक्षा महावीर की तपस्या कहीं कठोर और दीर्घकालव्यापी रही है। उन्होंने बारह वर्षों की लम्बी तपस्या के क्रम में केवल ३५० दिन पारण किया और शेष दिनों में निर्जल उपवास किया। निर्जल उपवास के दिनों की संख्या चार हजार तेईस दिनों की होती है। अन्तर का अटूट संकल्प ही इस निष्ठावान् पुरुष को जीवित रख सका। निर्वाण : गौतम बुद्ध ने कुल पैंतालीस वर्ष धर्मोपदेश किया, जिसमें स्थायी रूप से पचीस वर्ष श्रावस्ती में रहे । उनका निर्वाण कुशीनगर में अस्सी वर्ष की ढलती आयु में हुआ। उनका मन थका न था, पर शरीर जराजीर्ण होकर झुर्रियों भरा था। सम्भव है, वे लाठी का सहारा ले वैशाली से कुशीनगर गये हों। बुढ़ापा तो आ चुका था। अतिसार रोग से भी इस लम्बी यात्रा में इतना परेशान हुए कि कुशीनगर के मल्लों के शालवन में अपनी इहलीला पूरी करते हुए उन्होंने एक ही उपदेश दिया–भिक्षुओं ! प्रमाद-रहित हो अपने कर्तव्य का सम्पादन करो। वर्द्धमान महावीर कुल ३२ वर्ष धर्मोपदेश कर सके । जहाँ उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया, उसी के निकटवर्ती पावापुरी में ५२७ ईसापूर्व में बहत्तर वर्ष की आयु में उनका परिनिर्वाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy