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________________ वसुदेवहिण्डी की खण्डकथाएँ 109 महुबिंदुदिटुंत', (१९.६) तथा ‘दुक्खे सुहकप्पणाए विलुत्तभंडस्स वाणियगस्स दिद्रुतं' (३९.१२) । 'दृष्टान्त' की शाब्दिक व्याख्या के अनुसार, परिणाम को प्रदर्शित करनेवाली कथाएँ ही ‘दृष्टान्त' (जिसका अन्त या परिणाम देखा गया हो = दृष्टः अन्तो यस्याः सा दृष्टान्तकथा) की संज्ञा प्राप्त करती हैं। मूलतः इस प्रकार की कथाएँ नीतिकथाएँ होती हैं। विषय-सुख में लिप्त मनुष्य विषय के तादात्विक सुख की अनुभूति में ही अपने जीवन की सार्थकता का अनुभव करता है, उसके भावी दुःखमय परिणाम का ज्ञान उसे नहीं रहता। संसारी मनुष्य भय-संकट की स्थिति में भी अपने को अज्ञानतावश निर्भय समझता है, वस्तुतः उसका सुख एकमात्र कल्पना ही होता है। कथाकार द्वारा उपन्यस्त मधुबिन्दु का दृष्टान्त श्रमण और ब्राह्मण-परम्परा के परवर्ती ग्रन्थकारों द्वारा भी बहुशः आवृत्त हुआ है। दूसरी दृष्टान्त-कथा में मधुबिन्दु के लोभी पुरुष की भाँति दुःख में सुख की कल्पना करनेवाले एक विलुप्तभाण्ड बनिये की कथा उपस्थापित की गई है। कथा का सारांश है कि दुःखपरिणामी वर्तमान सुख को ही सुख माननेवाले बनिये को अपने एक करोड़ के माल से हाथ धोना पड़ा। इसलिए, नीति यही है कि भावी सुख के लिए वर्तमान में दुःख उठाना ही श्रेयस्कर है, अन्यथा वर्तमान सुख सही मानी में दुःख है, और वर्तमान दुःख में सुख की कल्पना भविष्य के लिए हानिकारक होती है। इस प्रकार, कथाकार द्वारा रची गई उक्त दोनों दृष्टान्त-कथाएँ विशुद्ध रूप से नीतिपरक कथाएँ हैं। _ 'वसुदेवहिण्डी' में ‘णाय'-संज्ञक कुल तीन कथाएँ हैं : 'गब्भवासदुक्खे ललियंगयणायं' (२२.५); 'दढसीलयाए धणसिरीणायं' (१३८.१३) तथा 'सच्छंदयाए रिवुदमणनरवइणायं' (१०४.३) । ‘णाय' या 'ज्ञात'-संज्ञक कथाओं की गणना भी विकथा में की जा सकती है; क्योंकि इनका सम्बन्ध भी कामकथा से जुड़ा हुआ है। कथाकार द्वारा प्रस्तुत अन्तःसाक्ष्य के अनुसार ‘णाय'-संज्ञक कथाएँ ‘दृष्टान्त'-संज्ञक कथाओं के ही भेद हैं। कथाकार ने उक्त तीनों ज्ञातकथाओं में विषयासक्त मनुष्य की दुर्गति की ओर संकेत किया है। पहली कथा में ललितांगद और दूसरी कथा में डिण्डी यौनसुख की आसक्ति रखते थे, पुनः तीसरी कथा में राजा रिपुदमन अपनी रानी के साथ यान-विहार की आसक्ति में पड़ गया था। इस प्रकार ये तीनों ज्ञातकथाएँ विशुद्ध कामकथाएँ हैं । 'वसुदेवहिण्डी' में 'उदन्त'-संज्ञक दो कथाओं का उल्लेख हुआ है। प्रथम 'कथोत्पत्ति-प्रकरण' में 'अत्थविणिओगविरूवयाए गोवदारगोदंतं' (३२.१०) तथा द्वितीय 'धम्मिल्लहिण्डी' में 'नागरियछलिअस्स सागडिअस्य उदंत' (१६१.१) । प्रथम कथा में देवी द्वारा प्रतिबोधित गोपदारक वेश्या के भ्रम में मातृगमन के अकृत्य से बच गया है, साथ ही वेश्या का उसकी माँ के रूप में पहचान भी प्रस्तुत हुई है। द्वितीय कथा में एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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