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________________ 102 Vaishali Institute Research Bulletin No. 8 १८. देखें : जैनशिलालेखसंग्रह भाग २ लेख क्रमांक २६७, २७७, २९९ १९. वही : भाग २ लेखक्रमांक २६७, २७७, २९९ ज्ञातव्य है कि काणूरगण को मूलसंघ, कुन्दकुन्दान्तय और मेष पाषाण गच्छ। से जोड़नेवाले ये लेख न केवल परवर्ती हैं, अपितु इनमें एकरूपता भी नहीं २०. वरांगचरित : सं. ए. एन. उपाध्ये, भूमिका (अंग्रेजी) पृ. १६ पर धृत वंद्यर् जटासिंहणदयाचार्यदींद्रणंद्याचार्यादि मुनि परा काणूर्गणं । -अनन्तनाथपुराण, १.१७ २१. देखें : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय : प्रो. सागरमल जैन पृ. १४५-१४६ २२. देखें : वरांगचरितः सं. ए. एन. उपाध्ये, भूमिका (अंग्रेजी) पृ. १७ २३. देखें : यापनीय संघ पर कुछ और प्रकाश : ए.एन. उपाध्ये, 'अनेकान्त', वीर निर्वाण-विशेषांक, १९७५ ई. २४. यतीनां (३.७), यतीन्द्र (३.४३), यत्तिपतिना (५.११३), यति (५.११४), यतिना(८.६८), यतिः (वीरचर्या यतयोबभूवुः (३०.६१), यतिपति (३०.९९), यतिः (३१.२१) २५. देखे : वरांगचरित, २६/८२-८३; तुलनीय स्वयम्भूस्तोत्र (समन्तभद्र), १०२-१०३ २६. आचारमादौ समधीत्य धीमान्प्रकीर्णकाध्यायमनेकभेदम् । .. अङ्गानि पूर्वांश्च यथानुपूक्मल्पैरहोभिः सममध्यगीष्ट ।। -वरांगचरित, ३१.१८ २७. स्थूलामहिंसामपि सत्यवाक्यमचोरतादाररतिव्रतं च। भोगोपभोगार्थपरिप्रमाणमन्वर्थदिग्देशनिवृत्तितां च ॥ सामायिकं प्रोषधपात्रदानं सल्लेखनां जीवितसंशये च। गृहस्थधर्मस्य हि सार एषः संक्षेपतस्तेऽभिनिगद्यते स्म ।। . -वरांगचरित, २२.२९-३० देखिए : वरांगचरित सर्ग १५, श्लोक १११-१२५ तुलनीय : पञ्च य अणुव्वयाई, तिण्णेव गुणव्वयाइ भणियाई। सिक्खावयाणि एत्तो, चत्तारि जिणोवइट्ठाणि ॥११२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014012
Book TitleProceedings and papers of National Seminar on Jainology
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYugalkishor Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1992
Total Pages286
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size16 MB
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