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________________ 458 Multi-dimensional Application of Anekāntavāda वह व्यवहार की उपयोगिता है। जाति के आधार पर मनुष्य छोटा बड़ा नहीं हो सकता। “एगा माणुसी जाई" मनुष्य जाति एक है। यह प्राचीन आर्षवाणी है। समाज में सब प्रकार की आवश्यकता होती है। व्यक्ति के भोजन मकान आदि की प्राप्ति के साध्य समान हैं किंतु उसकी पूर्ति के साधन भिन्न हैं। वे ही वर्ण व्यवस्था के सूत्रधार हैं। विनोबा जी ने कहा समाज का विकास हाथ की पांच अंगुलियों की तरह हो। अत: अनेकान्त के आलोक में वर्ण व्यवस्था की समस्या का समाधान खोजा जा सकता है। परिवार में अनेकान्त परिवार समाज की मुख्य इकाई है। इसके आधार पर ही समाज का निर्माण होता है। परिवार में व्यक्ति अनेक सम्बन्धों से बंधा हुआ है। उन आपसी सम्बन्धों में यदा-कदा खींचतान चलती रहती है और जीवन और वातावरण अशान्त बन जाता है। यद्यपि आज ऐसे आंदोलन चल रहे हैं। जो परिवार की अवधारणा को ही ठीक नहीं मानते। मार्क्स ने कहा abolish the family, परिवार व्यवस्था को समाप्त करो क्योंकि परिवार ही शोषण का दुर्ग है। पाश्चात्य देशों में नारी स्वातंत्र्य के आंदोलन पारिवारिक अवधारणा पर कुठाराघात कर रहे हैं। हमें इस विषय पर भी अनेकान्त दृष्टि से विहंगम दृष्टिपात करना होगा। जिस परिवार को शोषण का दुर्ग कहा जा रहा है, व्यक्ति दायित्वबोध, लोक, शिक्षण, धर्मशिक्षण, कर्तव्याकर्तव्य का विवेक भी तो उसी के द्वारा सीख रहा है। परिवार सुरक्षा का आलम्बन बनता है। विकास का कारण बनता है। परिवार में शान्त-सहवास सहिष्णुता के द्वारा ही आ सकता है - "खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंत् में, .........” मैं सब जीवों को क्षमा करता हूं, वे सब मुझे क्षमा करें। मेरी सबके प्रति मैत्री है। किसी के प्रति मेरा वैर नहीं है। यह पारस्परिक सहिष्णुता का सूत्र है। सहिष्णुता एवं मैत्री के बिना परिवार, समाज का व्यवस्थित संचालन नहीं हो सकता। परिवार एवं समाज में परस्परता आवश्यक है। डार्विन का उद्विकास का सिद्धान्त सत्य होने पर भी समाज का आदर्श नहीं हो सकता। Survival of the fittest का सिद्धान्त समाज में आदर्श नहीं हो सकता, समाज में वृद्ध बालक का जीवन निर्वाह होता है वे fittest तो नहीं हैं। जीवन के लिए संघर्ष आवश्यक है इसमें सत्यांश हो सकता है किन्तु यह क्या पूर्ण सत्य है? समाज के संदर्भ में जैनाचार्यों द्वारा प्रदत्त सूत्र "परस्परोपग्रहो जीवानाम्" का सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण है। पारस्परिक सहयोग से ही जीवन का संचालन होता है। संघर्ष आरोपित है, सहयोग स्वाभाविक है। अनेकान्त दृष्टि से चिन्तन करने से अनेक समस्याएं समाहित हो जाती हैं। __ व्यक्ति समाज का एक अंग है। वह सामाजिक जीवन जीता है। समाज के संदर्भ में उसके जीवन का विकास होता है। व्यक्ति और समाज को सर्वथा पृथक् एवं अपृथक् नहीं किया जा सकता है। व्यक्ति की विशेषता उसको समाज से अलग करती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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