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________________ 412 Multi-dimensional Application of Anekāntavāda ही पतित क्यों न हो गया हो। एक बार भगवान महावीर ने सुना कि एक यक्ष बड़ा क्रूर और दुष्ट स्वभाव का है, मनुष्यमात्र के प्रति उसके मन में भयङ्कर घृणा है। उसने हजारों मनुष्यों को मारमारकर हड्डियों के ढेर लगा दिए हैं। वह सदैव हाथ में एक भयङ्कर शूल रखता है, देखते ही मनुष्य को उस शूल पर पिरो लेता है। श्रमण महावीर एक रात उसी शूलपाणि यक्ष के मन्दिर में जाकर ध्यानस्थ हो गए। क्रूर यक्ष ने अपने मन्दिर में भिक्ष को खड़ा देखा तो उसने भयङ्कर अट्टहास करके मन्दिर की दिवारों को कँपा दिया; किन्तु महाश्रमण की ध्यान साधना प्रकम्पित नहीं हुई। अब तो उसने क्रुद्ध होकर भीषण उपद्रव करने शुरू किए। यक्ष के अनेकानेक भीषण उपद्रवों से भी जब महाश्रमण की ध्यानमुद्रा विचलित न हुई तो वह क्रूर यक्ष स्वयं भयभीत हो उठा- “कहीं यह तपस्वी साधक क्रुद्ध होकर मुझे समाप्त न कर डाले!" क्रूरता हारकर जब भय में परिणत हुई तो महाश्रमण ने प्रेम से आश्वस्त किया! यक्ष को अभयदान देते हुए कहा- “शूलपाणि! तुमने अपने को नहीं पहचाना! तुम्हारे मन की घृणा और क्रूरता एक निम्न प्रकार की कायरता की ही परिणति है। देखो न, तुम्हारा पौरुष हारकर भय में बदल जाता है, करता ग्लानि में बदल जाती है। अभय और शान्ति चाहते हो, तो प्रेम करो! मनुष्य के प्रति घृणा नहीं, स्नेह के फूल बरसाओ ! जैन पुराणों के अनुसार वह शूलपाणि यक्ष महावीर का परमभक्त बन गया। आस-पास के उजड़ते हुए गाँव फिर बसने लग गए। सर्वत्र निर्भयता और दिव्य शान्ति छा गई। यह था प्रेम का चमत्कार, जिसने घृणा और क्रूरता को सद्भावना में बदल दिया। अनेकान्तवाद : दूसरे की सम्मतियों का सम्मान __फ्रेंकलिन ने एक बार कहा था- “मैंने यह नियम बना लिया कि दूसरों के विचारों का प्रत्यक्ष प्रतिवाद और अपने विचारों का निश्चित समर्थन नहीं करूंगा। मैंने प्रत्येक ऐसे शब्द और वाक्य का उपयोग छोड़ दिया, जिससे ध्रुव सम्मति टपकती हो, जैसा कि 'निश्चय से, 'निस्सन्देह', इत्यादि और उनके स्थान में, मैं समझता हूँ, या 'मेरी धारणा है कि अमुक बात ऐसी है, या मुझे ऐसा प्रतीत होता है। जब कोई दूसरा मनुष्य कोई ऐसी बात कहता, जिसे मैं समझता कि गलत है, तो मैं अपने को इसका एकदम खण्डन करने और उसके कथन में तत्काल कोई बेहूदगी दिखालने से रोकता; और उत्तर देते समय मैं आरम्भ में ही कह देता कि विशेष अवस्थाओं या स्थितियों में उसका मत ठीक होगा, परन्तु वर्तमान दशा में मुझे कुछ अन्तर प्रतीत होता या जान पड़ता है, इत्यादि। अपने ढंग में इस परिवर्तन का लाभ मुझे शीघ्र ही दिखाई पड़ा, जिन वार्तालापों में मैं भाग लेता वे अधिक आनन्ददायक होने लगे। जिसे नम्र भाव से मैं अपनी बात कहता, उसे लोग बहुत उत्सुकता से सुनते और प्रतिवाद कम होता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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