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________________ अनेकान्तवाद : एक दार्शनिक विश्लेषण 391 गुरु अनेकान्तवाद को नमस्कार करते हुए आचार्य सिद्धसेन ने ठीक ही लिखा है - _जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडई । तस्स भुवणेक्कगुरूणो णमोऽणेगंतवायस्स ।। सन्मतिप्रकरण ३/७० प्रमाणों का विषय अनेकान्तात्मक वस्तु न्यायावतार में कहा गया है - अनेकान्तात्मकं वस्तु गोचरः सर्वसंविदाम् । एकदेशविशिष्टोऽर्थो नयस्य विषयो मतः ।। न्यायावतार - २९ "सब ज्ञानों का विषय अनेकान्तात्मक वस्तु है और नय का विषय एकदेश से विशिष्ट वस्तु है एवं अनेकान्तात्मक वस्तु के सर्वदंश को साधने वाला प्रमाण है। अनेकान्तदृष्टि की व्यापकता अनेकान्त दृष्टि जब अपने विषय में प्रवृत्त होती है तब अपने स्वरूप के विषय में वह सूचित करती है कि वह अनेक दृष्टियों का समुच्चय होने से अनेकान्त तो है ही, परन्तु वह एक स्वतन्त्र दृष्टि होने से उस रूप में एकान्तदृष्टि भी है। इसी तरह अनेकान्त दूसरा कुछ नहीं है, वह तो भिन्न-भिन्न दृष्टि रूप इकाइयों का सच्चा जोड़ है। ऐसा होने से वह अनेकान्त होने पर भी एकान्त भी है ही। इसमें इतनी विशेषता है कि यह एकान्त यथार्थता का विरोधी नहीं होना चाहिए। सारांश यह कि अनेकान्त में सापेक्ष एकान्तों को स्थान है ही। जैसे अनेकान्त दृष्टि एकान्तदृष्टि के आधार पर प्रवर्तित मतान्तरों के अभिनिवेश से बचने की शिक्षा देती है, वैसे ही अनेकान्तदृष्टि के नाम से जन्मने वाले एकान्ताग्रहों से बचने की भी शिक्षा देती है। जैन प्रवचन अनेकान्तरूप है, ऐसा माननेवाला भी यदि उसमें आए हुए विचारों को एकान्तरूप से ग्रहण करें, तो वह स्थूल दृष्टि से अनेकान्तसेवी होने पर भी तात्त्विक दृष्टि से एकान्ती ही बन जाता है। इससे वह सम्यग्दृष्टि नहीं रहता। उदाहरणार्थ ज्ञान और आचार की कुछ मुख्य बातों को ले सकते हैं - जैन आगमों में संसारी जीव के छ: निकाय (जातियाँ) बताये गये हैं और आचार के बारे में कहा गया है कि हिंसा अर्थात् जीवघात अधर्म का कारण है। इन दोनों विचारों को एकान्त रूप से ग्रहण करने में यथार्थता का लोप होने से अनेकान्त दृष्टि ही नहीं रहती। जीव की छ: ही जातियाँ हैं, ऐसा मानने पर चैतन्य रूप से जीवतत्त्व का एकत्व भुला दिया जाता है और दृष्टि में मात्र भेद ही आता है। अतः पृथ्वीकाय आदि छ: विभागों को एकान्तरूप से ग्रहण न करके उनमें चैतन्य के रूप में जीवतत्त्व का एकत्व भी माना जाय तो वह यथार्थ ही है। इसी तरह 'आत्मा एक है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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