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________________ 390 Multi-dimensional Application of Anekāntavāda प्रश्न- यदि प्रत्येक नय भिन्न-भिन्न रहने पर विरोधी हैं, तो सबको मिला देने पर विरोध कैसे मिट सकता है? उत्तर- जिस प्रकार परस्पर विवाद करते हुए वादियों को यदि कोई मध्यास्थ युक्तिपूर्वक निर्णय करने वाला मिल जाता है तो वे विवाद छोड़कर शान्त हो जाते हैं, उसी प्रकार नय भी परस्पर में शत्रुता धारण करते हैं, परन्तु जब सर्वज्ञदेव का शासन पाकर ‘स्यात्' शब्द के मिल जाने से आपस के विरोधभाव छोड़कर शान्त हो जाते हैं, तब वे ही नय परस्पर में अत्यन्त मैत्री धारण करके ठहर जाते हैं। इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् का दर्शन सर्वनयस्वरूप होने से अविरुद्ध है; क्योंकि एक-एक नयस्वरूप ही सब दर्शन हैं। प्रश्न- यदि भगवान् का दर्शन सम्पूर्ण दर्शन स्वरूप है तो वह सम्पूर्ण भिन्नभिन्न दर्शनों में क्यों नहीं दिखाई देता है? उत्तर- सम्पूर्ण नदियों का समूह ही समुद्र है, परन्तु भिन्न-भिन्न बहती हुई नदियों में वह नहीं दीखता है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने कहा है उदधाविव सर्वसिन्धवः समदीर्णास्त्वयि नाथ दृष्टयः। न च तासु भवान् प्रदृश्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः।। "जिस प्रकार सम्पूर्ण नदियाँ समुद्र में मिलती हैं, उसी प्रकार सम्पूर्णदर्शन आपके दर्शन में तो मिलते हैं, परन्तु फिर भी जिस प्रकार भिन्न-भिन्न रहने वाली नदियों में समुद्र नहीं दिखता, उसी प्रकार आपका दर्शन भी उन भिन्न-भिन्न दर्शनों में नहीं दीखता।" अनेकान्तवाद और स्याद्वाद स्याद्वाद भाषा की वह निर्दोष प्रणाली है, जो वस्तुतत्त्व का सम्यक् प्रतिपादन करती है। इसमें लगा हआ 'स्यात्' शब्द प्रत्येक वाक्य के सापेक्ष होने की सूचना देता है। 'स्यात् अस्ति' वाक्य में 'अस्ति' पद वस्तु के अस्तित्व धर्म का मुख्य रूप से प्रतिपादन करता है और 'स्यात्' शब्द उसमें रहने वाले नास्ति आदि शेष अनन्त धर्मों का सद्भाव बताता है कि 'वस्तु अस्तिमात्र ही नहीं है, उसमें गौण रूप से नास्ति आदि धर्म भी विद्यमान हैं। अनेकान्तवाद स्याद्वाद का पर्यायवाची है अर्थात् ऐसा वाद अनेकान्तवाद कहलाता है, जिसमें वस्तु के अनन्तधर्मात्मक स्वरूप का प्रतिपादन मुख्य गौणभाव से होता है। यद्यपि ये दोनों पर्यायवाची हैं, फिर भी 'स्याद्वाद' ही निर्दुष्ट भाषा शैली का प्रतीक बन गया है। अनेकान्त दृष्टि तो ज्ञान रूप है, अत: वचनरूप स्याद्वाद से उसका भेद स्पष्ट है१२। इस अनेकान्त के बिना लोकव्यवहार नहीं चल सकता। पग-पग पर इसके बिना विसंवाद की सम्भावना है। अत: इस त्रिभुवन के एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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