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________________ अनेकान्तवाद की प्रासंगिकता 371 विश्लेषण- 'अमृतमंथन' के समान किया । तत्पश्चात् धर्म प्रभावना के हेतु वे संचार करते रहे। अपने निर्वाण कल्याण या मोक्ष प्राप्ति तक समवसरण सभाओं में जो उपदेश देते थे उनमें अनेकान्तवाद का ही प्राधान्य था। उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप में मैक्सगर्ट चिंतक ने भी गहन चिंतन के बाद अनेकान्तवाद के समतुल्य सिद्धान्त की स्थापना की। उसने अपने इस अभिप्राय का समर्थन करते हुए कहा- "इस विश्व में जितनी भी वस्तुएँ हैं वे सब इस विश्व के ही अंग हैं। इसका सत्य भावना प्रधान तथा चेतनामय है।" "मैक्सगर्ट' तो एक वैज्ञानिक था। अत: उसने जो कुछ कहा वह अतीव तार्किक एवं आधारपूर्ण या वैज्ञानिकता की पृष्ठभूमि पर आधारित था। उसने गंभीर चिंतन व मनन करने के बाद यह उद्घोषित किया- "इस विश्व में अनेकता ही अधिक वास्तव है। एकांगी दृष्टिकोण से दुराग्रह करना नितांत मूर्खता का काम है। पाश्चात्य राष्ट्रों में विज्ञान के प्राबल्य के अहंकारी विद्वानों को लताड़ते हुए 'जेम्स काँड' नामक एक मन:शास्त्रज्ञ ने जो कुछ कहा वह आज भी विचारणीय है। उनका अभिमत था- "आधुनिक विज्ञान अपने वैज्ञानिक साधनों एवं उपकरणों की सहायता से अनुसंधान करके जिस सत्य का प्रतिपादन करता है वह तो केवल "तात्कालिक सत्य है, न कि चरम सत्य। वैज्ञानिक लोक में जो कुछ भी सत्य का निरूपण होता है वह तो सत्य का एकांगी स्वरूप है न तो पूर्ण-सत्य को वे जानते हैं, न बता ही पाते हैं। इस लघु प्रस्तावना के बाद, हम देखेंगे कि मानव जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अनेकान्तवाद की क्या प्रासंगिकता या उपयोगिता है। अनेकान्तवाद-सामाजिक जीवन में किसी भी राष्ट्र के नैतिक मूल्यों तथा आदर्शों का परीक्षण व निरीक्षण वहाँ के सामाजिक जीवन के परिप्रेक्ष्य में ही किया जा सकता है। समाज क्या है? कई व्यक्तियों के मिलने से समाज बनता है। यह ‘समाज' नामक संगठन बहुत दुर्बल है। क्योंकि समाज के अलग-अलग सभी अंग अत्यंत बलहीन कड़ियाँ हैं जिनके मिलने से 'समाज' नामक श्रृंखला की संरचना होती है। यदि कड़ियाँ दुर्बल हों तो श्रृंखला कैसे प्रबल हो सकेगी? हमारा समाज जाति, मत, धर्म-इत्यादि कारणों से विभाजित दिखता है। सारी दुनियां ही एक प्रकार से विभक्त दीख पड़ती है। काले लोग और गोरे लोग, पश्चिम के राष्ट्र और पूर्व के राष्ट्र, इस्लामिक राष्ट्र तथा इस्लामेतर राष्ट्र, ईसाई राष्ट्र एवं गैर-ईसाई राष्ट्र- इस प्रकार संसार में राष्ट्रों के विभाजन के विभिन्न आधार हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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