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________________ 362 Multi-dimensional Application of Anekāntavāda किया है। इसी प्रकार "स्यादस्ति च नास्ति' के सन्दर्भ में उन्होंने कहा है कि यह आधुनिक संभाव्यता के सिद्धान्त को तार्किक आधार प्रदान करता है और पाँचवाँ भंग "स्यादस्ति च अवक्तव्यम्'' संभाव्यता के क्षेत्र के अस्तित्व को निर्दिष्ट करता है। जबकि, स्यान्नास्ति च अवक्तव्यम्, संभाव्यता के क्षेत्र के अस्तित्व का निषेध करता है। यद्यपि प्रो० महलनबिस की यह व्याख्या जैन-सप्तभंगी को समीचीन नहीं है तथापि स्याद्वाद की तरफ वैज्ञानिकों के विचाराकर्षण में अवश्य सफल रही है। भौतिक विज्ञान के कुछ ऐसे सिद्धान्त हैं जिनको सप्तभंगी के भंगों में रखा जा सकता है। इस संदर्भ में प्रो० मेरी बी० मिलर और एच० रिचेनबैक का विचार द्रष्टव्य है। इन तार्किकों के अनुसार प्रकाश के तरंग और कणिका सिद्धान्त को जैन तर्कशास्त्र के भङ्गों में सूत्रबद्ध किया जा सकता है। कथञ्चित् प्रकाश तरंग है, उदाहरणार्थ अपवर्तन और विवर्तन में, जिन्हें तरंगों के रूप में समझा जा सकता है। कथंचित् यह तरंग नहीं है: उदाहरणार्थ काम्पटन के प्रभावपूर्ण प्रकीर्णन में, जिन्हें तरंगों के रूप में आसानी से नहीं समझा जा सकता है, कथंचित् यह अनिश्चित है जैसे फोटाग्रैफिक फिल्म पर प्रकाश के प्रभाव को तरंग सिद्धान्त से सिद्ध करने में, यह कार्य क्वान्टम सिद्धान्त के रूप में समझने योग्य है; जो तरंग और कणिका दोनों के विचार को रखता है। यह (प्रकाश) तरंग और तरंग नहीं है, दोनों को एक साथ सिद्ध करता है (यह तीसरा भङ्ग है)। कथंचित् यह है और यह तरंग नहीं है, जैसे जब यह लेन्स या ग्रेटिंग से गुजरता है (जहाँ यह निश्चित रूप से तरंग नहीं होता है) और तब यह काम्पटन प्रभाव को विषय करता है। ('जहाँ यह निश्चित रूप से एक कणिका के रूप में प्रत्यास्पन्दन करता है।) इसलिए वह क्रमश: तरंग है और तरंग नहीं है (यह चौथा भंग है।) कथंचित् यह (प्रकाश) तरंग है और यह अनिश्चित है, जैसे जब यह विवर्तित होता है तब यदि इसका चित्र लिया जाय। कथंचित् यह तरंग नहीं है, जैसे जब यह विवर्तित होता है तब यदि इसका चित्र लिया जाय। कथंचित् यह तरंग नहीं है और यह अनिश्चित है जैसे काम्पटन के प्रभाव के बाद यदि चित्र खींचा जाय। कथंचित् यह है और यह तरंग नहीं है और यह अनिश्चित है, जैसे यदि एक ग्रेटिंग, काम्प्टन प्रभाव और एक फोटोग्रैफिक प्लेट तीनों पर एक साथ प्रयोग किया जाय।१० इस प्रकार भौतिक विज्ञान के तरंग सिद्धान्त को सप्तभंङ्गी के भङ्गों में रखने से सप्तभङ्गी के ही सप्त मूल्यात्मकता की सिद्धि होती है; क्योंकि प्रत्येक भङ्ग में जोजो प्रयोग किये गये हैं उनसे भिन्न-भिन्न निष्कर्षों की प्राप्ति होती है। प्रत्येक प्रयोग का निष्कर्ष एक दूसरे से भिन्न है। इसलिए प्रत्येक प्रयोग भी एक दूसरे से भिन्न और नवीन है। यद्यपि इस प्रयोग के आधार पर प्रो० मेरी बी० मिलर और एच० रिचेनबैक ने यह व्याख्या त्रि-मूल्यात्मक तर्कशास्त्र के आधार पर ही की है और अन्त में उसे त्रि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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