SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 415
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 350 Multi-dimensional Application of Anekāntavāda ३. स्यादस्तिनास्ति च यह सप्तभंगी का तीसरा भंग है। इस भंग में प्रथम स्यादस्ति और दूसरे स्यान्नास्ति भंग का संयोग है। लेकिन इसका कार्य उपर्युक्त दोनों भंगों से भिन्न है। इसके कार्य को न तो केवल अस्ति भंग कर सकता है और न केवल नास्ति भंग ही। अत: यह एक स्वतन्त्र एवं नवीन भंग है। जिस तरह एक और दो पृथक् एवं स्वतन्त्र दो संख्यायें हैं पर इन दोनों के योग से वही अर्थ निकलता है जो कि एक स्वतन्त्र संख्या तीन का अर्थ होता है। परन्तु तीन नामक संख्या का अस्तित्व और दोनों से पृथक माना गया है। क्योंकि जो अर्थ तीन संख्या देती है वह न तो केवल एक और न केवल दो ही दे सकती है। इसी प्रकार तीसरा भंग यद्यपि अस्ति और नास्ति का संयोग है परन्तु जिस उद्देश्य की पूर्ति प्रथम और द्वितीय भंग अलग-अलग करते हैं, उसी उद्देश्य की पूर्ति तीसरा भंग भी नहीं करता। बल्कि नयी कथा वस्तु प्रस्तुत करता है। इसमें पहले विधि, फिर निषेध की क्रमश: विवक्षा की जाती है। इसमें स्वचतुष्टय की अपेक्षा से सत्ता और पर चतुष्टय की अपेक्षा से असत्ता का क्रमश: कथन किया गया है। ४. स्यात् अवक्तव्यम् यह सप्तभंगी का चौथा भंग है। यह वस्तु के उस स्वरूप का विवेचन करता है जिसके प्रतिपादन में क्रमश: प्रथम, द्वितीय और तृतीय भंग असमर्थ रहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब वस्तु-स्वरूप का कथन-विधि पक्ष से किया जाता है तब उसका निषेध पक्ष शेष रहता है और जिस समय उसके निषेध पक्ष का प्रतिपादन होता है उस समय उसका विधि पक्ष छूट जाता है । इसके साथ ही जब तीसरे भंग से वस्तु के विधि एवं निषेध दोनों पक्षों का प्रतिपादन होता है तब वह भी क्रमश: या क्रम रूप से ही हो पाता है। किन्तु जब वस्तु के अस्तित्व और नास्तित्व दोनों पक्षों के एक काल में युगपत् कथन की विवक्षा होती है तब वाणी असमर्थ हो जाती है। वाणी की शक्ति तो इतनी सीमित है कि वह वस्तु के सभी भावात्मक या सभी निषेधात्मक विधेयों का कथन एक साथ नहीं कर सकती है। वाणी की इसी असमर्थता को अभिव्यक्त करने के लिए सप्तभंगी में अवक्ततव्य भंग की योजना है। अवक्तव्य भंग यह स्पष्ट करता है कि वस्तु की वक्तव्यता क्रम से ही संभव है युगपत् रूप से नहीं क्योंकि भाषा में कोई भी ऐसा क्रियापद नहीं है जो अस्तित्व और नास्तित्व का युगपत् वाचक हो। पुन: एक अन्य बात यह है कि वस्तु के सम्पूर्ण गुण धर्म एक दूसरे से परस्पर भिन्न हैं। इसलिए उन परस्पर भिन्न धर्मों के प्रतिपादक शब्द भी परस्पर भिन्न हैं, साथ ही, भाषा में कोई ऐसा उभयात्मक शब्द नहीं है जो वस्तु के उन परस्पर भिन्नभिन्न धर्मों को एक साथ अभिव्यक्त कर सके । इसलिए भी उन परस्पर भिन्न-भिन्न धर्मों की एक साथ कहने की अपेक्षा होती है तब उन्हें अवक्तव्य कहना आवश्यक हो जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy