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________________ सप्तभंगी बहुमूल्यात्मक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में 349 ७) स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्य १. प्रथम भंग-स्यादस्ति इस भंग से वस्तु में अस्तिरूपता का निर्धारण होता है कि अमुक वस्तु में अमुक धर्म का अस्तित्व अमुक अपेक्षा से है। “स्यात्'-"अस्ति" "एव" का शाब्दिक अर्थ ही है कि किसी अपेक्षा विशेष से वस्तु में भावात्मक धर्मों की सत्ता है ही। जैसे "स्यादस्त्येव घटः” का अर्थ है- स्वचतुष्टय की अपेक्षा से घट में भावात्मक धर्मों की सत्ता निश्चित रूप से है । यद्यपि यह भंग वस्तु के भावात्मक धर्मों का ही विधान करता है, तथापि यह वस्तु के अभावात्मक धर्मों का निषेध नहीं करता है, क्योंकि इस भंग में प्रयुक्त ‘स्यात्' नामक अपेक्षा सूचक पद वस्तु के भावात्मक धर्मों के विधान के साथ ही अभावात्मक धर्मों की रक्षा भी करता है, और 'एव' शब्द जो कभी-कभी कथन में उपेक्षित या ओझल हो जाता है, यद्यपि उसकी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए, कथन के उद्देश्य से अपेक्षित धर्म को निश्चयता एवं कथन को पूर्णता प्रदान करता है। इसी प्रकार 'अस्ति' शब्द जो कि एव के पहले और स्यात् के बाद प्रयुक्त होकर कथन को पूर्ण बनाता है, इस भंग का क्रियापद है। परन्तु अब समस्या यह है कि इस कथन के विधेय स्वरूप अस्तिरूपता का बोध किस पद से होता है? इस समस्या के समाधान हेतु दो बातें हमारे समक्ष आती हैं-प्रथम तो यह कि “अस्ति" पद ही क्रियापद के साथ-साथ विधेय पद का भी बोध कराता है। इस आधार पर यद्यपि इस भंग का स्वरूप "स्यादस्त्येवास्ति' होना चाहिए। पर मेरे विचार से जैन आचार्यों ने एक ही वाक्य में दो अस्ति पद का प्रयोग करना उचित नहीं समझा और यह मान लिया कि एक ही अस्तिपद दोनों बातों का बोध करायेगा। दूसरे, यह कि जैन आचार्यों ने स्यादस्त्येव को केवल प्रतीक रूप में ही प्रयुक्त किया। जिससे उसमें जिस विधेय का कथन करना हो, उसको बैठा दिया जाए और वही उसका विधेय पद हो जाय, उदाहरणार्थ- 'स्यादस्त्येव घटः' अर्थात् सापेक्षत: घट में अस्तिसूचक धर्म है ही। इस प्रकार प्रथम भंग वस्तु में अस्तिरूपता का निर्धारण करता है। २. स्यानास्ति दूसरा भंग स्यान्नास्ति है। यह वस्तुतत्त्व के अनुपस्थित या अभावात्मक धर्मों की सूचना देता है कि अमुक वस्तु में अमुक-अमुक धर्म अमुक-अमुक अपेक्षा से नहीं है। उदाहरणार्थ, स्यान्नास्त्येव घट: का अर्थ है सापेक्षतः घट नास्ति रूप है ही। परन्त यहां यह स्मरण रखना चाहिए कि घट को नास्ति रूप कहने का आशय घट की सत्ता का निषेध नहीं है, अपितु घट में पर धर्मों का निषेध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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