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________________ 328 Multi-dimensional Application of Anekāntavāda समय में कुछ धर्मों का ही ज्ञान कर सकते हैं और दूसरों के समक्ष भी कुछ धर्मों का प्रतिपादन कर सकते हैं। स्याद्वाद की शैली सहानुभूतिमय है। इसलिए उसमें समन्वय की क्षमता है। उसकी मौलिकता यही है कि अन्य वादों को वह उदारता के साथ स्वीकार करता है, लेकिन उनको उसी रूप में नहीं, उनके साथ रहनेवाले आग्रह के अंशों को छोड़कर उन्हें वह अपना अंग बनाता है। स्याद्वाद दुराग्रह के लिये नहीं, किन्तु ऐसे आग्रह के लिए संकेत करता है, जिसमें सम्यक् ज्ञान के लिए अवकाश हो। बौद्धिक स्तर पर इस सिद्धान्त को मान लेने से मुनष्य के नैतिक और लौकिक व्यवहार में एक महत्त्व पूर्ण परिवर्तन आ जाता है। चारित्र ही मानव जीवन का सार है। चारित्र के लिये मौलिक आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य एक ओर तो अपने को अभिमान से पृथक् रखे, साथ ही हीन भावना से अपने को बचाये। स्पष्टत: यह मार्ग कठिन है। वास्तविक अर्थों में जो अपने स्वरूप को समझता है दूसरे शब्दों में आत्मसम्मान करता है और साथ ही दूसरे के व्यक्तित्व को भी उतना ही सम्मान देता है, वही उपर्युक्त दुष्कर मार्ग का अनुगामी बन सकता है। इसलिए समग्र नैतिक समुत्थान में व्यक्ति का समादर एक मौलिक महत्त्व रहता है। अनेकान्त दर्शन का महत्त्व इसी सिद्धान्त के आधार पर है कि उसमें व्यक्तित्व का सम्मान निहित है। अनेकान्त कोरा दर्शन नहीं है, यह साधना है। एकांगी आग्रह राग और द्वेष से प्रेरित होता है। राग-द्वेष क्षीण करने का प्रयत्न किए बिना एकांगी आग्रह या पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण से मुक्ति नहीं पायी जा सकती । जैसे-जैसे राग-द्वेष क्षीण होता है, वैसे-वैसे अनेकान्तदष्टि विकसित होती है। जैसे-जैसे अनेकान्तद्रष्टि विकसित होती है, वैसे-वैसे राग-द्वेष क्षीण होता है। जैन-दर्शन ने राग-द्वेष को क्षीण करने के लिए अनेकान्तदृष्टि प्रस्तुत की। एकांगी दृष्टि से देखनेवाले दार्शनिक दर्शन का सही उपयोग नहीं कर पाते। दर्शन सत्य का साक्षात्कार करने के लिए है। राग-द्वेष में फंसा व्यक्ति सत्य का साक्षात्कार कैसे कर सकता है । सत्य की उपलब्धि के नाम पर जहां रागद्वेष की वृद्धि होती है, वहां दर्शन की दिशा सर्वथा विपरीत हो जाती है। दर्शन सत्य की उपलब्धि के लिए है । जब शान्ति की उपलब्धि के हेतु भी अशान्ति के हेत् बन जाते हैं तब ऐसा प्रतीत होने लगता है कि ज्योतिपुंज से तिमिर की रश्मियां विकीर्ण हो रही हैं। जैन दर्शन में तर्क-सत्य की अपेक्षा अनुभव-सत्य अधिक श्रेय है। आग्रही मनुष्य अपनी मान्यता की पुष्टि के लिए तर्क खोजता है और आध्यात्मिक व्यक्ति सत्य की अभिव्यक्ति के लिए उसकी खोज करता है। तर्क व्यवहार की भूमिका का उपकरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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