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________________ समन्वय, शान्ति और समत्व योग का आधार अनेकान्तवाद 327 है कि विभिन्न दर्शनकारों ने जो अनेकान्त विरोधी तर्क प्रस्तुत किये हैं, उनमें उन दर्शनकारों ने अनेकान्त दर्शन के साथ न्याय नहीं किया है। मालूम होता है कि विरोधी दर्शनकारों ने अनेकान्तवाद को समझने का या तो प्रयत्न ही नहीं किया, या समझकर भी ऊपर ही उसका विरोध किया। वैज्ञानिक मार्ग यह है कि हम अपने विरोधियों की बात को ठीक से समझें, फिर उस पर आलोचना करें । यदि हम उसको ठीक से न समझकर अथवा उसके द्वारा उक्त शब्दों के अर्थ को घुमाकर या उसके एक देश को लेकर उसका उपहास करने की दृष्टि से कुछ भी अर्थ करें, यह उचित मार्ग अथवा तत्त्वान्वेषण या तत्त्व जिज्ञासा का मार्ग नहीं है, और यह संदर्भित चिन्तन के प्रति अन्याय भी है। ___ यह पहले भी स्पष्ट किया जा चुका है और यहां पुन: दुहराते हैं कि स्याद्वाद पदार्थों को जानने की एक दृष्टि है। स्याद्वाद स्वयं अंतिम सत्य नहीं है। वह हमें अंतिम सत्य तक पहुंचाने के लिए केवल मार्गदर्शक का काम करता है। स्याद्वाद से व्यवहारसत्य के जानने में उपस्थित होने वाले विरोधों का समन्वय किया जा सकता है। इसलिए जैनदर्शनकारों ने स्याद्वाद को व्यवहारसत्य माना है। व्यवहारसत्य के आगे जैन दर्शन में निरपेक्षसत्य भी माना गया है जिसे पारिभाषिक शब्दों में केवलज्ञान कहा जाता है। स्याद्वाद में सम्पूर्ण पदार्थों का क्रम से ज्ञान होता है। किन्तु केवलज्ञान सत्य प्राप्ति की उत्कृष्ट दशा है, उसमें सम्पूर्ण पदार्थ और उन पदार्थों की अनन्त पर्यायें एक साथ प्रतिभासित होती हैं। स्याद्वाद का क्षेत्र लोकव्यवहार भी है और द्रव्य मात्र भी है, जिसका परिज्ञान सप्तभंगी द्वारा हो जाता है। स्याद्वाद हमें केवल जैसे-तैसे अर्धसत्यों को ही पूर्ण सत्य मान लेने के लिए बाध्य नहीं करता है किन्तु सत्य के दर्शन करने के लिए अनेक मार्गों की खोज करता है। स्याद्वाद का कथन है कि मनुष्य की शक्ति सीमित है, इसलिए वह आपेक्षिक सत्य को ही जान सकता है। हमें पहले व्यावहारिक विरोधों का समन्वय करके आपेक्षिक सत्य को प्राप्त करना चाहिए और आपेक्षिक सत्य को जानने के बाद हम पूर्ण सत्य केवलज्ञान का साक्षात्कार करने के अधिकारी हो सकते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि यदि पदार्थ के स्वभाव को समझना है, और ज्ञान का यथार्थ मूल्यांकन करना है तो अनेकान्तमयी स्याद्वाद दृष्टि को अपनाना चाहिए। क्योंकि साधारण मनष्य की शक्ति अत्यन्त सीमित है और बुद्धि परिमित है। ऐसी स्थित में बहुत प्रयत्न करने पर भी हम ब्रह्माण्ड के असंख्य पदार्थों का ज्ञान करने में असमर्थ रहते हैं। स्याद्वाद यही प्रतिपादित करता है कि हमारा ज्ञान पूर्ण सत्य नहीं कहा जा सकता है बल्कि हमारा ज्ञान आपेक्षिक सत्य है। पदार्थों के अनन्त धर्मों में से हम एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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