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________________ 284 Multi-dimensional Application of Anekāntaväda वस्तु में सत्व-असत्व, नित्यत्व-अनित्यत्व, एकत्व-अनेकत्व, भाव-अभाव आदि अनेक परस्पर विरोधी गण धर्म पाये जाते हैं। इन अनंत गुण-धर्मों के कारण ही वस्तु को अनेकान्तात्मक कहा जाता है। अनेकांतवाद एक वस्तु में परस्पर विरोधी और अविरोधी धर्मों का विधाता-स्रष्टा है। वह वस्तु को नाना धर्मात्मक बतलाकर ही चरितार्थ हो जाता है। जहाँ अनेकांतवाद हमारी बुद्धि को वस्तु के समस्त धर्मों की ओर समग्र रूप से खींचता है वहाँ स्याद्वाद वस्तु के एक धर्म का ही प्रधान रूप से और अन्य धर्मों का गौण रूप से बोध कराने में समर्थ है। नाना धर्मात्मक वस्तु हमारे लिए किस प्रकार उपयोगी हो सकती है, यह बात स्याद्वाद बतलाता है।” ११ स्याद्वाद, अनेकांतवाद का ज्ञानमीमांसीय रूप है। सामान्य मनुष्य का ज्ञान सीमित एवं अपूर्ण होता है। अत: वह वस्तु के अनंत गुण-धर्मों का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि वस्तु के अनंत गुण-धर्मों में से कुछ धर्म व्यक्त होते हैं और कुछ अव्यक्त। वस्तु के अव्यक्त गुण धर्मों का ज्ञान साधारण व्यक्ति के लिए संभव नहीं है। पुन: वह जो कुछ जानता है उसे समग्रतया एक ही प्रकथन में अभिव्यक्त करने में असमर्थ होता है, क्योंकि उसकी वाणी की सामर्थ्य उसकी ज्ञान-सामर्थ्य की अपेक्षा सीमित है। उदाहरणार्थ- किसी वस्तु को देखते ही उसके रंग, रूप, मोटाई, चौड़ाई आदि अनेक आयामों का ज्ञान एक साथ प्राप्त किया जा सकता है। वस्तुत: मनि नथमल जी का कहना ठीक ही प्रतीत होता है कि "ज्ञेय अनंत, ज्ञान अनंत, किंतु वाणी अनंत नहीं।” इस प्रकार ज्ञान और अभिव्यक्ति की सीमाओं को बताना ही स्याद्वाद का उद्देश्य है। जैन विचारकों के अनुसार अधिकांश दार्शनिक विवादों-आलोचना प्रत्यालोचनाओं का मूल कारण ज्ञान एवं अभिव्यक्ति की इन सीमाओं की उपेक्षा कर अपने ज्ञान एवं कथन को ही निरपेक्ष एवं पूर्ण मान लेना है। यही आग्रह है, एकान्त है। इसी के कारण ज्ञान दूषित बन जाता है। स्याद्वाद ही एक ऐसा सिद्धांत है जो यह धोतित करता है कि ज्ञान और वाणी की सीमा को ध्यान में रखते हए सापेक्ष कथन ही सत्य को उद्घाटित कर सकता है । यद्यपि सर्वज्ञ (केवली) वस्तु के काल एवं अव्यक्त अनेक धर्मों को जान सकता है परंतु वह भी वाणी द्वारा उन सबको एकसाथ अभिव्यक्त करने में असमर्थ होता है, क्योंकि वाणी (भाषा) की अपनी सीमा है वह उसका अतिक्रमण नहीं कर सकती। यद्यपि उन समस्त धर्मों का प्रतिपादन वाणी (भाषा) के द्वारा ही संभव है, फिर भी शब्द सामर्थ्य सीमित होने के कारण प्रत्येक प्रकथन किसी एक विशिष्ट गुण धर्म को ही अभिव्यक्त कर पाता है, क्योंकि वचन व्यापार क्रम से ही होता है। वस्तुत: वस्तु तत्त्व का यथार्थ प्रतिपादन क्रमपूर्वक एवं सापेक्षरूप से ही संभव है।''१२ जैनेन्द्र सिद्धांत कोश में कहा गया है कि किसी भी एक शब्द या वाक्य के द्वारा सारी की सारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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