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________________ अनेकान्तवाद की उपयोगिता चिंतक ऐसा मानते थे कि विश्व का मूल तत्त्व एक ही है किन्तु वह अपने को अनेक रूपों में अभिव्यक्त करता है। भगवान महावीर ने इसे इस प्रकार कहा कि जिस प्रकार एक ही पृथ्वीपिंड नाना रूपों में दिखाई देता है उसी प्रकार एक ही आत्मा समस्त लोकों में विविध रूप से दिखाई देती है। इस प्रकार उस युग में ऐसी ही अनेक विचारधाराएँ प्रचलित थीं जो अपनेअपने मन्तव्य को प्रस्तुत कर उसे ही सत्य एवं दूसरे को असत्य बता रही थीं । जिसके परिणामस्वरूप वे सभी तत्त्व की यर्थाथता से बहुत दूर थे । 283 अनेक विचारणाओं की उपस्थिति में विवाद उग्ररूप ले रहा था । विचारक निरर्थक कल्पनाओं के जाल में फंसकर तर्क-वितर्क कर रहे थे, किन्तु उन अनेक विचारधाराओं के प्रवर्तकों के बीच कुछ लोग ऐसे भी थे जो तत्कालीन तर्क-वितर्कों को समाप्त करने का अथक प्रयास कर रहे थे। उन समन्वयवादी विचाराकों का ऐसा विश्वास था कि उपर्युक्त सभी विचारधाराएँ मूल तत्त्व के केवल एक-एक पक्ष का ही निरूपण कर रही हैं। विश्व का मूल तत्त्व तो एक और पूर्ण है। उसे न केवल सत् कहा जा सकता है और न केवल असत् । यदि उसे केवल असत् या केवल सत् कहा जाये तो वह निरपेक्ष एवं अपूर्ण हो जायेगा । अतः वह न केवल सत् है और न केवल असत्; अपितु वह सद्सद् रूप है, अर्थात् वह सत् और असत् दोनों है । दूसरे शब्दों में नित्यवाद - अनित्यवाद, भेदवाद - अभेदवाद आदि जितने भी मत-मतान्तर हैं वे सभी वस्तु के एक-एक पक्ष का निरूपण करते हैं अत: आपेक्षिक रूप से सत्य हैं। महावीर ने भी ऐसी विचारधाराओं को मिथ्या धारणाएँ ही कहा है तथापि वे उन्हें तभी तक मिथ्या कहते हैं जब तक वे एकांतिक हों, या एकांतरूप से वस्तु तत्त्व का निरूपण करते हुए अन्य दृष्टियों का प्रतिषेध करती हों, किन्तु ज्यों ही वे सापेक्षिक होकर अन्य दृष्टियों का प्रतिषेध न करते हुए वस्तु तत्त्व का प्रतिपादन करतीं हैं त्यों ही वे सत्य हो जाती हैं। अतएव किसी एक पक्षीय आग्रह से सत्य का ज्ञान संभव नहीं है। सत्य के ज्ञान के लिये तो उनका समन्वय आवश्यक है । इसीलिए जैन विचारकों ने समन्वयात्मक प्रवृत्ति अपनाकर वस्तु स्वरूप का विवेचन किया और तत्कालीन सभी प्रश्नों का उत्तर विधायक रूप से दिया। उनके इसी विधायक दृष्टिकोण का परिणाम यह हुआ कि उन्हें वस्तुओं में नित्यत्व-अनित्यत्व, एकत्व - अनेकत्व, भेदत्व-अभेदत्व आदि अनेक पक्षों को स्वीकार करना पड़ा। तत्पश्चात् वस्तुओं की अनंत धर्मात्मकता और अनेकान्तवाद जैसे सिद्धांतों की स्थापना हुई । " १० अनेकांतवाद और सापेक्षतावाद जैन दर्शन के अनुसार वस्तुएँ अनंत धर्मात्मक हैं- "अनंत धर्मकं वस्तु" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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