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________________ 256 Multi-diniensional Application of Anekāntavāda नहीं हो सकता है। असम्बद्ध अर्थ भी उसका वाच्य नहीं हो सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर विरोध ही उत्पन्न होता है। उक्त ऋजुसूत्र नय अनेकान्तवाद पर आधारित विषय को ही पृष्ट बनाता है। (५) शब्दनय कर्ता, कर्म आदि कारकों के व्यवहार को सिद्ध करने वाले अथवा लिंग, संख्या कारक, उपग्रह, काल आदि के व्यभिचारी की निवृत्ति करने वाले को शब्द नय कहते हैं। जैसे - किसी वस्तु का भिन्न-भिन्न लिंग वाले शब्दों के द्वारा निरूपण करना । जो वट्टणं ण मण्णई एयत्थे भिण्णलिंग-आईणं । सो सद्दणओ भणिओ णेओ पुंसाइआंण जहा।। जो एक अर्थ में भिन्न लिंग आदि वाले शब्दों की प्रवृत्ति स्वीकार करता है अर्थात् 'लिंग-संख्या-साधनादि-व्यभिचारनिवृत्तिपर: शब्दनय:।' लिंग, संख्या, साधन आदि के व्यभिचार को दूर करने वाले ज्ञान और वचन को शब्दनय कहते हैं। ___ “शपत्यर्थमाह्वयति प्रत्याययतीति शब्दः।" जिस व्यक्ति ने संकेत ग्रहण किया है उसे अर्थबोध कराने वाला शब्द है। यह नय लोक और व्याकरण शास्त्र की चिन्ता नहीं करता है, यहाँ तो केवल नय का विषय प्रतिपादित किया जा रहा है, न कि किसी को प्रसन्न किया जा रहा है। जैसे प्रमाण अनन्त धर्मात्मक वस्तु का बोधक है, वैसे ही शब्द भी अनन्त धर्मात्मक वस्तु का वाचक है। जिन धर्मों में विशिष्ट वाचक का प्रयोग किया जाता है वे सब धर्म वाच्य में रहते हैं। जैसे - गंगा के किनारे के लिए 'तट:, तरी, तटम्' इन तीनों ही लिंगों का प्रयोग किया जाना एक 'तट' शब्द का ही बोध कराता है। इसमें जो परिवर्तन है, वह लिंग भेद का है। व्याकरण शास्त्र में (i) लिंग-व्यभिचार (ii) संख्या व्यभिचार (iii) साधन व्यभिचार और (iv) काल व्यभिचार पर विचार किया जाता है, परन्तु शब्दनय में ऐसा नहीं है। सिद्ध शब्द में जो अर्थ-व्यवहार किया जाता है वह शब्दनय का विषय है। (i) कालभेद से अर्थभेद - उपदयपुर था, है, होगा। (ii) लिंगभेद से अर्थभेद- बालक है, बालिका है, दोनों हैं, दोनों नहीं। (iii) वचनभेद से अर्थभेद- पुस्तक है, पुस्तकें हैं। ६. समभिरूढ नय सदारूढो अत्थो अत्थारूढो तहेव पुण सदो। भणइ इह समभिरूढो जह इदं पुरंदरो सक्का।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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