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________________ अनेकान्त: स्वरूप और विश्लेषण न हो ऐसा हो नहीं सकता । 'घट' पत्थर के प्रहार से टूटता है यह स्थूल नियम है। सूक्ष्म जगत् में यह नियम नहीं घटित होता है। (iii) निर्हेतुक उत्पत्ति जो उत्पन्न होता है, वही विनाश को प्राप्त होता है।" देव पर्याय की उत्पत्ति होते ही मनुष्य पर्याय का नाश हो जाता है । इसलिए उत्पाद का कोई हेतु नहीं। वह ‘सो चेव आदि मरणं' उत्पन्न होना और मरण को प्राप्त होना स्वभाव सिद्ध है। (क० पा० १.१३) (iv) वर्ण आदि 'पर्याय' द्रव्याश्रित नहीं “न कृष्णः काकः ४।” कौआ कृष्ण नहीं है, वे दोनों अपने अपने स्वरूप में हैं, जो कृष्ण है, वह कृष्णात्मक ही है, काकात्मक नहीं, क्योंकि काक भी काकात्मक ही है, कृष्णात्मक नहीं, क्योंकि ऐसा मानने से सफेद काक का प्रसंग आता है। कौओं के मांस, रूधिर ऐसे नहीं। अत: काला रंग अपने स्वरूप में काला है और कौआ अपने स्वरूप में कौआ है। - (v) सामानाधिकरण्य का अभाव "नास्य नयस्य समानमस्ति सर्वथा द्वयो: समानत्वे एकत्वापत्तेः। समानतापि न कथंचित् विरोधात् ॥” इस ऋजु सूत्र नय की दृष्टि में कोई किसी के समान नहीं है, क्योकिं दोनों को सर्वथा समान मान लेने पर, उन दोनों में एकत्व की आपत्ति प्राप्त होती है । कथंचित् समानता भी नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर विरोध आता है ८५ । (vi) विशेषण - विशेष्यभाव नहीं होना "नास्य विशेषण- विशेष्यभावोऽपि” । ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से सर्वथा भिन्न दो पदार्थों में संयोग व समवाय सम्बन्ध नहीं बन सकता है, गुण-गुणी सम्बन्ध भी नहीं बन सकते हैं, क्योंकि जो एक है उसमें इस प्रकार का द्वैत करने पर विरोध आता है ८६ । Jain Education International 255 · (vii) ग्राह्य-ग्राहक भाव नहीं होना असम्बद्ध अर्थ का ग्रहण मानने पर अव्यवस्था की आपत्ति और सम्बद्ध का ग्रहण मानने पर विरोध आता है । पूर्वज्ञान उत्तर ज्ञान के द्वारा गृहीत भी नहीं होता, क्योंकि एक तो ज्ञान समान है ही नहीं। यदि मान लिया जाय तो विरोध आयेंगे। (viii) वाच्य - वाचकभाव नहीं होना “नास्य शुद्धस्य वाच्य वाचक भावोऽस्ति।” इस नय में वाच्य वाचक भाव भी नहीं । शब्दप्रयोग के समय वाच्यभूत अर्थ का अभाव हो जाने पर सम्बद्ध अर्थ उसका वाच्य - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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