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________________ अनेकान्तः स्वरूप और विश्लेषण 253 २. संग्रहनय - "एकत्वेन विशेषाणां ग्रहणं संग्रहो नयः।" स्वजातेरविरोधेन दृष्टष्टाभ्यां कथंचन: ।। अपनी सत्ता स्वरूप जाति के दृष्ट, इष्ट, प्रमाणों से अविरोध करके सभी विशेषों का कथंचित् एकत्वभाव ग्रहण करना संग्रहनय है। विवक्षित पदार्थ में भेद न करके किसी भी सामान्य गणधर्म की अपेक्षा से अभेद रूप से किसी भी पदार्थ के ग्रहण करने का नाम 'संग्रहनय' है। 'संग्रह' में 'सं' शब्द का अर्थ समस्त है और 'ग्रह' का अर्थ जान लेना है। जैसे-'जीवत्व' सामान्य धर्म की अपेक्षा से यह “जीव' है। संग्रहनय दो प्रकार का है (१) शुद्ध संग्रहनय और (२) अशुद्ध संग्रहनय। (i) शुद्ध संग्रहनय जो सम्पूर्ण जीवादि विशेष पदार्थों को 'सत' है ऐसा एकत्व रूप में ग्रहण करता है वह शुद्ध संग्रहनय है। इसे सामान्य संग्रह भी कहते हैं जैसे- नगर, अरण्य, यूथ, जीवसमूह, अजीवसमूह आदि। अर्थात् इस संग्रहनय में परस्पर अविरोध रूप से सबको ग्रहण किया जाता है। “णाणावरणीयवेयणा जीवस्स' ज्ञानावरणीय की वेदना जीव के लिए होती है। (ii) अशुद्ध-संग्रहनय संग्रहनय की अपेक्षा नो जीव और जीव बहुत्व स्वीकार किए गए हैं यही अशुद्धसंग्रहनय है जिसे विशेष संग्रहनय कहते हैं। जहाँ प्रत्येक जाति के समूह को नियम से एकवचन के द्वारा स्वीकार करके कथन किया जाता है वहाँ अशुद्ध संग्रहनय होता है जैसे- कर्मसमूह, मोक्षमार्ग, रत्नत्रय, आम, नीम आदि । संग्रहनय यथार्थग्राही है, जैसा वस्तु का स्वरूप है, वैसा ही ग्रहण करता है। चारों गतियों के संसारी जीव तथा सिद्ध इन सबको मिलकर जीवों की संख्या सब मिलकर अनन्त है। “विश्वमेकं सदविशेषादिति ९।' विश्व एक है, क्योंकि इसकी सत्ता सर्वत्र सामान्य रूप से व्याप्त है। यह अद्वैत दृष्टि रूप है। सत्ता तात्त्विक है और विशेष अतात्त्विक है। सत्ता की अपेक्षा से जीव ज्ञान गुण हो सकता है, किन्तु द्रव्य में ज्ञान के अतिरिक्त अन्य गुण भी हैं। विश्व की समग्र दृष्टि इसमें है, यह निर्णय तक पहुँचने वाला है। यह समन्वय की स्थापना में पूर्ण समर्थ है। ३. व्यवहारनय यह नय संग्रह द्वारा गृहीत विषय को भेद रूप में ग्रहण करता है, जैसे- सांसारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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