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________________ 252 Multi-dimensional Application of Anekantavāda (i) भाविनैगम नय णिप्पण्णमिव पयंपदि भाविपदत्थं खु जो अणिप्पण्णं । अप्पत्थे जह पत्थं भण्णइ सो भाविणइग-मुत्ति-णओ६।। जो अनिष्पन्न भावि पदार्थ को निष्पन्न की तरह कहता है, वह भाविनैगमनय है। जैसे - अप्रस्थ को प्रस्थ कहना । जो अभी बना नहीं है वह अनिष्पन्न है और जब बन जाता है, तब निष्पन्न कहलाता है। जैसे कोई व्यक्ति संत समागम का आया हुआ जानकर उनके साथ श्रमणों के पात्र आदि लेकर चलते हुए व्यक्ति से पूछे कि कहाँ जा रहे हो तो वह उत्तर देगा कि दीक्षा लेने जा रहा हूँ। दीक्षा अभी ली नहीं, पर आगे लेगा, यही भाविनैगमनय है। (ii) भूत नैगमनय णिव्वत्त-अत्थ-किरिया वट्टणकाले तु जं समायरणं । तं भूद-णइगम-णयं जह जदिणं णिब्बुओ वीरो ।। जो कार्य हो चुका उसका वर्तमान काल में आरोप करना भूत नैगमनय है, जैसेआज के दिन वीर/महावीर का निर्वाण हुआ था। अतीत में वर्तमान का आरोप करना भूत नैगमनय है। (iii) वर्तमान नैगम नय पारद्धा जा किरिया पचणविहाणादि कहइ जो सिद्धा। लोएसु पुच्छमाणो भण्णई तं वट्टमाण-णयं ।। प्रारम्भ की गई पकाने आदि की क्रिया को करने वाले से पूछा जाय कि क्या कर रहे हो और वह कहे कि भात पका रहा हूँ तो वहाँ भात पकाने का कार्य नहीं हुआ, पर ईंधन, चावल आदि की तैयारी करने के कारण वह भात का सिद्ध या निष्पन्न होना कहता है। नैगमनय द्रव्य नैगम पर्याय नैगम द्रव्य द्रव्य-पर्याय नैगम शुद्ध अशुद्ध अर्थपर्याय व्यञ्जनपर्याय अर्थव्यञ्जनपर्याय शुद्ध द्रव्य पर्याय शुद्धद्रव्य व्यञ्जनपर्याय अशुद्ध अशुद्धद्रव्य-व्यञ्जनपर्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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