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________________ अनेकान्त: स्वरूप और विश्लेषण 237 द्रव्यार्थिक में सामान्य रूप से वस्तु का प्रतिपादन किया जाता है। द्रव्यार्थिक नय अभेद रूप/सामान्य रूप से कथन करता है- जैसे जीव है, जीव का अस्तित्त्व वचन भेद-पर्याय से रहित है। जहाँ तक सामान्य स्वभाव का ज्ञान है, वहाँ तक द्रव्यार्थिक नय का विषय रहता है। सत्ता सामान्य के विषय में जब तक पर्याय सम्बन्धी विकल्प तथा वचन व्यवहार नहीं उत्पन्न होता है, तब तक पर्यायार्थिक नय से अतिक्रान्त वस्तु द्रव्यार्थिक नय का वाच्य है। अपने-अपने विषय की मर्यादा में एक नय का दूसरे नय में प्रवेश होना सम्भव है, किन्तु अन्तिम विशेष में यह सम्भव नहीं है। सामान्यत: एक नय दूसरे नय से अतिक्रान्त होता है। परन्तु कोई भी नय सत्ता विशेष या सत्ता सामान्य का लोप नहीं करता बल्कि उसकी उपेक्षा कर देता है। वस्तु जैसी होती है, वैसी विवक्षा वश वस्तु का निरूपण किया जाता है। द्रव्यार्थिक नय दस रूप हैं, वे वस्तु की अनेकान्त विवक्षा का विवेचन करते हैं१. कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय यह नय कर्मों के मध्य में स्थित अर्थात् कर्मों से लिप्त जीव को सिद्धों के समान ग्रहण करता है, जैसे- संसारी जीव सिद्ध के समान शुद्धात्मा है। संसारी जीव कर्मों से युक्त है, वह सिद्ध तो नहीं, परन्तु द्रव्य रूप से संसारी जीव वैसा ही है, जैसा सिद्ध जीव है। इसे अध्यात्म में शुद्धनय या निश्चयनय भी कहते हैं। यह नय शुद्ध द्रव्य को विषय करता है, इसलिए परमार्थ में उपयोगी है। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में कहा हैजो पस्सादि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णयं णियदं ।। अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणिहि ३।। जो आत्मा को अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, अविशेष और अन्य पदार्थ के संयोग से रहित अनुभव करता है, जानता है वह शुद्धनय स्वरूप है। २. सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय उत्पाद और व्यय को गौण करके जो सत्ता को ग्रहण करता है वह सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। 'सत् द्रव्यलक्षणम्, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्तं सत् । द्रव्य का लक्षण सत् है। सत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त होता है। उत्पाद और व्यय ये दोनों पर्यायार्थिकनय के विकल्प हैं, उन्हें गौण करके सत्ता मात्र ग्रहण करने वाला संग्रहनय है। ३. भेदविकल्प निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यायार्थिक नय द्रव्य स्वकीय गुण-पर्याय से अभिन्न है। गुण-गुणी, स्वभाव-स्वभाववान्, पर्यायपर्यायी और धर्म-धर्मी में जो भेद न करके अभेद रूप ग्रहण करता है वह भेद विकल्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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