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________________ भक्तामर स्तात्र में भक्ति एव साहित्य 71 मानतुग बड़े ही मार्मिक शब्दों में कहते हैं कि हे जिनेन्द्रदेव ! मैं तो बुद्धिहीन हूँ । जैसे जल में स्थित चन्द्र को पकड़ने के लिये कोई बाल मचले वैसे ही आपकी कीर्ति-गान करने को मैं चेष्टाकृत हुआ हूँ...जो संभव कहाँ ?1 पर भक्ति का अदम्य उत्साह शक्ति का मर्यादा तोड़कर घृहस्तर कार्य के लिये तत्पर है। जिनेन्द्रदेव के गुण चन्द्रमा की भांति निर्मल हैं, जिनका वर्णन बृहस्पति जैसा बुद्धिमान गुरु भी नहीं कर सकता, जैसे प्रलयकालीन समुद्र को बाहों से तैर कर पार नहीं किया जा सकता। वैसे ही अनन्तगुणधारी जिनेन्द्र का गुणगान करने का सामर्थ्य मानतुग में कहाँ ?? पुनः वे कहते हैं कि हे नाथ! आप चन्द्रमा से शीतल, अमृतमय हैं, मैं अल्पबुद्धि एवं बालचेष्टायुक्त हूँ । आपके गुणों का वर्णन करने का सामर्थ्य नहीं है पर आपकी भक्ति स्वयं प्रेरित करती है। जैसे वात्सल्य से प्रेरित मृगी मृगेन्द्र का भय भूलकर भी शिशु के रक्षणार्थ उसके पास जाती है । यद्यपि अनन्तगुणों के धारक उदृप्त प्रतिभा एक और है और मुनि की शक्ति दूसरी ओर। दोनों में तुलनात्मक दृष्टि से भारी अंतर है तथापि वात्सल्य, प्रेम, श्रद्धा और भक्ति उस ओर प्रेरित करती है। इतनी सुन्दर रचना में भी आचार्य अपने कर्तव्यपने का निषेध ही करते हैं जो उनकी नम्रता का प्रतीक है। वे जानते हैं कि अल्पज्ञ, अल्पश्रुत होने से विद्वानों के उपहास का निमित्त भी बनूँ...पर भक्ति का प्रेरक तत्त्व ही गुणगान के लिये नाचाल बना रहा है। जैसे कोकिल के मधुर रव का कारण वसंत का सौन्दर्य है उसी भांति आपकी गुणमंजरी मुझे कुहुकने की प्रेरणा दे रही है । अपनी इसी लघुता के प्रति आचार्य कहते हैं कि यद्यपि ओस बिन्दु की कोई कीमत नहीं होती, पर कमलपत्र के सान्निध्य में उसे मोती-सी चमक प्राप्त हो जाती है वैसे ही मुझे मदबुद्धि द्वारा किया गया यह स्तवन 1. (३), 2. (४) 3. श्लोक (५), 4. (६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014002
Book TitleJain Sahitya Samaroha Guchha 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1987
Total Pages471
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size19 MB
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