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________________ जैन साहित्य समारोह - गुच्छ २ जउगंदणो महप्पा त्रिणभाय वयधरो चरमदे हो । रहणेमि रायमई, रायमई कासिही विसया ॥७०॥ मयणपवणेण जइ तारिसो वि सुरसेल निच्चला चालिया । ता पक्कपत्तसत्ता गइय सत्ताण का वत्ता ॥७१॥ इसिलिए विषय-कामभोगों से मन को विरक्त कर जिनभाव में अध्यास करना चाहिये । ऐसे संयमभारी योगियों का दास बनना भी श्रेयस्कर हो । २. वैराग्य शतक : नीति और अध्यात्मविषयक प्राकृत रचनाओं में वैराग्यशतक नामक रचना बहुत प्रचलित रही है । यद्यपि इसका कर्ता अभी तक अज्ञात है । इसका दूसरा नाम 'भव-वैराग्यशतक' भी प्राप्त होता है । यह रचना संस्कृतवृत्ति एवं गुजराती अनुवाद सहित ३-४ बार प्रकाशित हो चुकी है । किन्तु फिर भी इसके प्रामाणिक संस्करण के प्रकाशित करने की आवश्यकता है। उसके लिये विभिन्न पाण्डुलिपियों का मिलान करना होगा । उज्जैन के सरस्वती भवन से प्राप्त पाण्डुलिपि के नमूने के रूप में इस रचना के आदि एव अन्त की कुछ गाथाएँ प्रस्तुत हैं । आदि अंश संसारभि असारे नरिथ सुह वाहि वैयणा पवरे । जाणतो इह जीवो ण कुणई जिण देसिय घम्भ ॥१॥ 5. (क) कचराभाई गोपालदास, अहमदाबाद, सन १८९५ (ख) हारालाल हंसराज, जामनगर, १९१४ (ग) देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार ग्रन्थमाला, १९४१ (घ) स्याद्वाद संस्कृत पाठशाला, खंभात, १९४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014002
Book TitleJain Sahitya Samaroha Guchha 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1987
Total Pages471
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size19 MB
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