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________________ अप्रकाशित प्राकृत शतकत्रय 41 जेह इन्दियरुपिया चोर सदा ते हने नथी लूटाव्या चरितरूप धनु ।। गाथा २ इन्दीरूप चवल तुरंगम दुर्गति मार्ग नइ धावत उथइ सदा । स्वभाविउ संसारस्वरूप रूंधइ श्रीवीतरागना वचन मारगवोरीइ ॥ गाथा ३ इन्दिय धूरत नह अहो उत्तम तिलवाकू कसमात्र देसिमा । पसरवा जउ दीयउ तउ लीधउ जहां । एक क्षण वरसनी कोडिसरीखो दुखमय ।। इस इन्द्रियविजय शतक में कामभोगों के दुष्परिणामों का वर्णन किया गया है। प्रसंगवश नारी को दुःखों की खान कहा गया है । जीवों का इतना मूढ़ और अशानी कहा गया है कि वे विषय भोगों के जाल में जानते हए भी फंस जाते हैं। क्योंकि उन्हें अपने स्वरूप का पता नहीं है। जो स्वाभिमानी व्यक्ति मृत्यु के आने पर भी कभी दीन वचन नहीं बोलते हैं, वे भी नारी के प्रेमजाल में फंसकर उसकी चाटुकारिता करते हैं । यथा मरणे वि दीणवचण माणधरा जे णरा ण पंति । ते वि हु कुणति लल्लि बालाणं नेह-गहिल्ला ॥६८|| इतिहास का एक उदाहरण देते हुए कवि कहता है कि यादववंश के पुत्र, महान् आत्मा, जिनेन्द्र नेमिनाथ के भाई, महाव्रतधारी, चरमशरीरी रथनेमि भी राजमति से विषयों की आकांक्षा करने लगता है । जब उस जैसा मेरूपर्वत सद्दश निश्चल यति भी कामरूपी पवन से चंचल हो उठा तब पके हुए पतों की तरह सामान्य अन्य जीवों की गति क्या कही जाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014002
Book TitleJain Sahitya Samaroha Guchha 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1987
Total Pages471
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size19 MB
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