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जैन दर्शन में दिक् और काल की अवधारणा
लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या असंख्यात्मक है. परन्तु अलोकाकाश के प्रदेशों की संख्या अनन्त है। लोकाकाश सान्त व ससीम है जब कि अलोकाकाश अनन्त व असीम है। ससीम लोक चारों ओर से अनन्त अलोक से घिरा हुआ है। अलोक का आकार बताते हुए कहा गया है कि वह खाली गोले में रही हुई पोलाई के समान है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अस्तित्व लोकाकाश में ही माना गया है। अलोकाकाश में इनकी स्थिति नहीं मानी गई है। इस दृष्टि से इन दोनों द्रव्यों के माध्यम से ही लोकाकाश और अलोकाकाश की विभाजन-रेखा स्पष्ट होती है। आत्मा मुक्त होने के पश्चात् ऊर्ध्वगमन करती है और धर्मास्तिकाय की सहायता से समय मात्र में लोकाकाश की सीमा के अग्रभाग पर पहुँच कर सिद्धशिला पर विराजमान हो जाती है और पुनः लौटकर संसार-चक्र में नहीं आती। नैश्चयिक काल .. चैन दर्शन में काल के सम्बन्ध में दो दृष्टियों से विचार किया गया है : नैश्चयिक काल और व्यावहारिक काल । नैश्चयिक काल का स्वरूप जैन दर्शन की मौलिक विशेषता है। इसकी विवेचना कर्म सिद्वान्त के संदर्भ से की. गई है। काल का मुख्य लक्षण 'वर्तना' मानते हुए 'उत्तराध्ययन सूत्र', अध्याय २८, गाथा १० में कहा गया है - "वतया. लक्खणो कालो।" 'तत्त्वार्थ सूत्र' के अध्याय ५, सूत्र २२ में कहा है :
'वर्तना परिणाम क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य ।”
अर्थात् वर्तना, परिणाम, किया परत्व और अपरत्व काल द्रव्य के उपकार हैं। वर्तना अब्द युच प्रत्ययपूर्वक " वृतु" धातु से बना है। जिसका अर्थ है जो वर्तनशील हो । उत्पत्ति, अपच्युति और विद्य
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