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________________ 22 जैन साहित्य समारोह - गुच्छ र दिक् की अवधारणा . जैन दर्शन के अनुसार आकाश स्वतन्त्र द्रव्य है । दिक् उसी का विभाग है । आकाश की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि वह द्रव्य जो अन्य सब द्रव्यों को अवगाह, अवकाश स्थान अर्थात् आश्रय देता है वह आकाश है-अवगाह लक्खणेणं आगासात्थिकाए। 'भगवती सूत्र', १३-४-४८। इन्द्रभूति. गौतम भगवान् महावीर से प्रश्न करते है - 'भगवन् ! आकाशतत्त्व से जीवों और अजीवों को क्या हाभ होता है ? महावीर उत्तर देते हैं : 'हे गौतम! आकाशास्तिकाय नीव ओर अजीव द्रव्यों के लिए भाजनभूत है अर्थात् आकाश नहीं होता तो ये जीव कहां होते ? धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय कहाँ व्याप्त होते ? काल कहाँ - बरतता ? पुद्गल का रंगमंच कहाँ बनता १. यह क्व निराधार ही होता।' .. . जैन दर्शन के अनुसार आकाश वास्तविक द्रव्य है अतः द्रव्य में बताये गये ६ सामान्य गुण उसमें निहित हैं । द्रव्य की दृष्टि से आकाश एक और अखण्ड द्रव्य है अर्थात् उसकी रचना में सातत्य है। क्षेत्र की दृष्टि से आकाश अनन्त और असीम माना गया है। यह सर्वव्यापी है और इसके प्रदेशों की संख्या अनन्त है । काल की दृष्टि से आकाश अनादिअनन्त अर्थात् शाश्वत है। स्वरूप की दृष्टि से आकाश अमूर्त है - वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि गुणों से रहित है। गति रहित होने से अगतिशील है। आकाश के दो भाग किये गये हैं : (१) लोका• काश और (२) अलोकाकाश । आकाश का वह भाग जो धर्मास्ति काय, अधर्मास्तिकाय, काल-पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय, इन पाँच द्रव्यों को आश्रय देता है वह लोकाकाश है। शेष भाग, जहां भाकाश के अलावा अन्य कोई द्रव्य नहीं है, वह अलोकाकाश है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014002
Book TitleJain Sahitya Samaroha Guchha 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1987
Total Pages471
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size19 MB
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