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________________ ३८४ जैन साहित्य समारोह जैन मुनियों ने इस प्रकार धर्म की ही नहीं, भाषा की भी बहुत बड़े भू-भाग में एकता का बहुत बड़ा कार्य किया। इनका उद्देश्य भाषा के चमत्कार के प्रदर्शन से अधिक जनसाधारण में नैतिकता और धर्म के प्रचार का था । 'समाधिशतक' की भाषा में हर दोहे में राजस्थानी क्रियाएँ, अनेक शब्द प्रस्तुत किये जा सकते हैं। अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए अनेक लोक-प्रचलित उदाहरणों को प्रस्तुत कर के सरल ढंग से समझाया हैं, जिससे अध्यात्म जैसा कठिन विषय भी सरलता से समझा जा सकता है। अपनी बात को समझाने के लिए उपमा, रूपक, उदाहरण; दृष्टांत जैसे अलंकारों या स्वाभाविक ढंग से प्रयोग किया है। इसी प्रकार लोक-प्रचलित मुहावरों और कहावतों का प्रयोग कथ्य को प्रस्तुत करने में अधिक उपयोगी सिद्ध हुए। वह क्षीर-नीर का प्रयोग करता है। लूटा लूट जैसे शब्दों का प्रयोग करता है, तो सीप में चांदी का भ्रम चामीकर का न्याय, इल्ली का भ्रमरी हो जाना, कोल्हू के बैल की तरह जुते रहना, रज्जु में सांप का भ्रम, जैसे उदाहरणों से अपनी बात समझाते है तो साथ ही मोह की लगाम, मन का जाल आदि के रूपक द्धारा भी अपनी बात कहते हैं। यशोविजयजी की 'समाधिशतक' ही नहीं, अन्य रचनाओं को पढ़ने के बाद वही आनन्द आता है जो कबीर या दयाराम मेंमिलता है । छंद की दृष्टि से कहीं कहीं स्खलन हुआ है, लेकिन आध्यात्म्य की धारा में यह कहीं अंतराय नहीं बनता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014001
Book TitleJain Sahitya Samaroha Guchha 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanlal C Shah, Kantilal D Kora, Pannalal R Shah, Gulab Dedhiya
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1985
Total Pages413
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size17 MB
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